April 18, 2013

मीडिया मंथन : जस्टिस काटजू कहिन


पने बयानों के कारण जस्टिस काटजू सुर्खियों में बने रहते हैं। कभी सजायाफ्ता लोगों की सजामाफी को लेकर तो कभी लोगों को बेवकूफ कहने को लेकर। लेकिन इंडियन एक्सप्रेस में मीडिया को लेकर उनकी टिप्पणी ने मीडिया जगत में बड़ी हलचल मचा दी थी। यहां प्रस्तुत है, उस टिप्पणी के कुछ अंश :

मेरी राय में भारतीय मीडिया को वैसी ही प्रगतिशील भूमिका निभानी चाहिए जैसी भूमिका यूरोप के मीडिया ने संक्रमणकाल में निभाई। ऐसा वह पिछड़ेपन, सामंती विचारों और व्यवहारों ;जातिवाद, सांप्रदायिकता और अंध्विश्वासद्ध पर प्रहार करके और आधुनिक वैज्ञानिक तथा तार्किक विचारों को बढ़ावा देकर कर सकता है। लेकिन क्या मीडिया ऐसा कर रहा है? मैं समझता हूं कि भारतीय मीडिया का और खासतौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक बड़ा हिस्सा जनता के हितों की पूर्ति नहीं कर रहा है। सच्चाई यह है कि इनमें से कुछ तो निश्चय ही जनविरोधी हैं। भारतीय मीडिया में तीन प्रमुख खामियां हैं जिन पर मैं प्रकाश डालना चाहूंगा।

पहली बात तो यह कि मीडिया प्रायः जनता का ध्यान वास्तविक मुद्दों से हटाकर गैर मुद्दों पर ले जाता है।भारत में आज वास्तविक मुद्दों का संबंध् सामाजिक आर्थिक पहलू से है- भीषण गरीबी जिसमें हमारी 80 प्रतिशत जनता गुजर बसर कर रही है, मंहगाई, चिकित्सा सुविध की कमी, शिक्षा और समाज में व्याप्त पिछड़ेपन के व्यवहार मसलन सम्मान के लिए हत्या, जाति उत्पीड़न और धर्मिक कट्टरता। इन मुद्दों पर ध्यान देने की बजाय मीडिया गैर मुद्दों पर ध्यान देता है मसलन फिल्म अभिनेताओं और उनका रहन-सहन, फैशन परेड, पॉप म्युजिक, डिस्को डांस, ज्योतिष, क्रिकेट, रियलिटी शो आदि आदि।

जनता के मनोरंजन प्रदान करने के मीडिया के काम से कोई आपत्ति नहीं हो सकती बशर्ते इसे वह जरूरत से ज्यादा सीमा तक न करे। लेकिन अगर उसके प्रोग्राम का 90 प्रतिशत हिस्सा मनोरंजन से संबंधित है और महज 10 प्रतिशत उपर बताये गये वास्तविक मुद्दों की बात करता है तो कहीं गंभीर किस्म की गड़बड़ी है। इसके अनुपात में कहीं जबर्दस्त असंतुलन है। स्वास्थ्य, शिक्षा, श्रम, कृषि और पर्यावरण के लिए कुल मिलाकर जितना समय दिया जाता है उससे नौ गुना अधिक समय मनोरंजन को दिया जा रहा है। क्या किसी भूखे अथवा बेरोजगार व्यक्ति को मनोरंजन चाहिए या उसे खाना और रोजगार चाहिए?
रोम के सम्राट कहा करते थे- ‘अगर आप जनता को रोटी नहीं दे सकते तो उन्हें सर्कस दिखाओ।’ भारतीय सत्ता संस्थान का ठीक यही नजरिया है जिसे मीडिया का भरपूर समर्थन प्राप्त है। जनता को क्रिकेट में उलझाये रखो ताकि वे अपनी सामाजिक और आर्थिक मुसीबतों को भुलाये रखें।
उदाहरण के लिए मैंने हाल में अपना टीवी खोला और मुझे क्या मिला? लेडी गागा भारत आ गयी है, करीना कपूर अपनी उस मूर्ति के बगल में खड़ी हैं जिसे मदाम तुसाद ने बनाया है, किसी व्यापारिक घराने को पर्यटन पुस्कार दिया जा रहा है, फॉर्मूला वन की रेस चल रही है आदि आदि। जनता की समस्याओं से इन बातों का क्या लेना देना है? अनेक चैनल रात-दिन क्रिकेट दिखाते हैं। रोम के सम्राट कहा करते थे- ‘अगर आप जनता को रोटी नहीं दे सकते तो उन्हें सर्कस दिखाओ।’ भारतीय सत्ता संस्थान का ठीक यही नजरिया है जिसे मीडिया का भरपूर समर्थन प्राप्त है। जनता को क्रिकेट में उलझाये रखो ताकि वे अपनी सामाजिक और आर्थिक मुसीबतों को भुलाये रखें।

गरीबी अथवा बेरोजगारी महत्वपूर्ण नहीं है- महत्वपूर्ण यह है कि क्या भारत ने न्यूजीलैंड को हराया ;अगर पाकिस्तान हो तो और भी अच्छा या क्या तेंदुलेकर अथवा युवराज सिंह की सेंचुरी पूरी हुई? पिछले दिनों ‘दि हिंदू’ ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें बताया गया था कि पिछले 15 वर्षों में ढाई लाख किसानों ने आत्महत्या की। लक्मे फैशन वीक को कवर करने के लिए 512 पत्रकारों ने हिस्सा लिया। उस फैशन वीक में भाग लेने वाली औरतें सूती कपड़े के वस्त्रा पहने थीं जबकि नागपुर से एक घंटे की दूरी पर वे किसान आत्महत्या कर रहे थे जिन्होंने इन कपड़ों के लिए कपास पैदा किया था। एक या दो पत्रकारों को छोड़कर किसी ने इस घटना की रिपोर्टिंग नहीं की।

00000000000000000000000000000000000000000000

एक जमाना था जब राजा राममोहन राय जैसे साहसी व्यक्तियों ने सती प्रथा, बाल विवाह और पर्दा प्रथा के खिलापफ अपने अखबारों मिरातुल अखबार’ तथा ‘संवाद कौमुदी’ में जमकर लिखा। निखिल चक्रवर्ती ने 1943 में बंगाल में पड़े अकाल की भयावहता के बारे में लिखा। मुंशी प्रेमचंद और शरत चंद चट्टोपाध्याय ने सामंती रिवाजों और महिलाओं के उत्पीड़न के खिलाफ लिखा। सआदत हसन मंटो ने विभाजन की भयावहता के खिलाफ लिखा।

लेकिन आज हम मीडिया में क्या देख रहे हैं? अनेक टीवी चैनल ज्योतिष आधरित कार्यक्रमों को दिखाते हैं। ज्योतिष और नक्षत्रा विज्ञान में घालमेल नही किया जाना चाहिए। नक्षत्र विज्ञान एक विज्ञान है जबकि ज्योतिष विज्ञान पूरी तरह अंधविश्वास पर टिका है और बकवास है। अगर थोड़ा भी सामान्य ज्ञान हो तो हम समझ सकते हैं कि तारों और ग्रहों की गतिशीलता में कोई तार्किक संबंध नहीं है और इसके जरिये हम यह नहीं समझ सकते कि कोई व्यक्ति 50 साल की उम्र में मरेगा या 80 साल की उम्र में या कोई व्यक्ति डॉक्टर बनेगा,  इंजीनियर बनेगा या वकील। बेशक हमारे देश में अधिकांश लोग ज्योतिष पर विश्वास करते हैं लेकिन ऐसा वे इसलिए करते हैं क्योंकि उनका मानसिक स्तर बहुत निम्न है। मीडिया को इस मानसिक स्तर को और नीचे ले जाने की बजाय उसे उन्नत करने का प्रयास करना चाहिए। कई चैनल ऐसे हैं जो उन स्थानों को दिखाते हैं जहां कोई हिंदू देवतापैदा हुआ या रहा इत्यादि। क्या यह अंधविश्वास को फैलाना नहीं है?

00000000000000000000000000000000000000000000


मीडिया लोगों को विभाजित करता है। जब भी भारत के किसी भी हिस्से में अगर कोई बम विस्फोट होता है तो कुछ ही घंटों के अंदर टीवी चैनल यह बताने लगते हैं कि उनके पास भारतीय मुजाहिदीन या जैश-ए मुहम्मद या हरकत-उल-जिहाद-ए-इस्लाम की ओर से ई-मेल अथवा एसएमएस मिले हैं जिनमें उन्होंने इन विस्फोटों की जिम्मेदारी ली है। ये नाम हमेशा मुस्लिम नाम होते हैं। अब कोई भी शरारती व्यक्ति जो सांप्रदायिक नफरत फैलाना चाहता हो इस तरह के ई-मेल अथवा एसएमएस भेज सकता है। क्या जरूरत है कि इसे टीवी के स्क्रीन पर दिखाया जाय और अगले दिन अखबारों में छाप दिया जाय। ऐसा करके बहुत बारीकी के साथ यह संदेश पहुंचाया जाता है कि जितने भी मुसलमान हैं वे या तो आतंकवादी हैं या बम फेंकने वाले हैं।

भारत में रहने वाले आज लगभग 92-93 प्रतिशत लोग बाहर से आये लोगों के मूल से हैं। इस प्रकार भारत में जबर्दस्त विविधता हैः अनेक धर्मों जातियों, भाषाओं और जातीय समूहों का अस्तित्व है। इसलिए अगर हम एकजुट और समृद्ध ( होना चाहते हैं तो यह बेहद जरूरी है कि हमारे अंदर सहिष्णुता हो और सभी समुदायों के प्रति समान रूप से सम्मान की भावना हो। जो लोग धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्रा के आधर पर लोगों के बीच फूट के बीज डालना चाहते हैं वे सचमुच जनता के दुश्मन हैं। इसलिए इस तरह के ई-मेल और एसएमएस संदेश भेजने वाले भारत के दुश्मन हैं जो धर्म के आधार पर हमारे बीच फूट पैदा करना चाहते हैं। मीडिया क्यों जाने अनजाने में इस राष्ट्रीय अपराध को बढ़ावा देने में लग जाता है?






No comments:

Post a Comment