February 19, 2013

ईट इंडिया कंपनी : हमारी भारत में 4 हजार शाखाएं हैं!


र इन्सान को जिस मुल्क में वह रहता है, उस मुल्क का बाशिन्दा कहलवाने में गर्व होना चाहिए। हमें भी अपने मुल्क से बेइन्तहा प्यार है। शायद इसलिए कुछ लोगों ने बड़ी बुलन्दी के साथ एक नारा उछाला - ‘गर्व से कहो, हम भारतीय हैं।’

हम भारत में जन्मे हैं तो हमारा हक भी बनता है कि हम खुद को भारतीय कहें। बार-बार कहें। थक कर चूर न हो जाएँ तब तक खुद को भारतीय कहें। क्यों न कहें ? आखिर हमारा पाँच हजार वर्ष पुराना इतिहास है, शून्य का आविष्कार हमने किया, योग और आयुर्वेद दुनिया को हमने दिया। इससे ज्यादा देते तो दुनिया वाले हमें फिजूलखर्च मानते।

"ईस्ट इंडिया कंपनी का नाम बदल गया है। नया नाम है - ईट (EAT) इंडिया कंपनी ! हाल ही में दिल्ली के एक सेमिनार में अन्तरराष्ट्रीय व्यापार संगठन के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा - ’हम भारतीय जनता के शुक्रगुजार हैं। आज हिन्दुस्तान में चार हजार विदेशी कम्पनियाँ काम कर रही हैं। भारत की जनता ने साथ नहीं दिया होता तो सफलता का यह मुकाम हासिल नहीं किया जा सकता था।’ ऐ खुदा ! चार हजार ईट इंडिया कंपनियाँ !"

इतिहास गवाह है कि हमने हमेशा एक सच्चे भारतीय होने का धर्म निभाया है ! सरहदों की लड़ाइयां हमारे लिए फिजूल थीं। परलोक सुधारना हमारे लिए ज्यादा जरूरी रहा। विदेशी आक्रमणकारियों के खिलाफ जंग लड़ना समय की बरबादी थी। हमारे लिए अहिंसा का संदेश फैलाना ज्यादा अहम था। जमीन के चंद टुकड़ों के लिए खून-खराबा हमें रास नहीं आया। विश्व-शांति के लिए कबूतर उड़ाना हमारे लिए सबसे बड़ी उपलब्धि थी। फिर ऐसा क्या हुआ कि हमारा गर्व चकनाचूर हो गया। हिन्दुस्तान की हैसियत एक खस्ताहाल और कर्जदार देश के रूप में दर्ज हो गई।

  क्या आज की तारीख में हम खुद को गर्व के साथ कह सकते हैं कि हम भारतीय हैं ? भारतीय होने में ऐसी क्या खास बात है ? क्या भारतीय दुनिया की सबसे बड़ी बहादुर कौम है ? या यह कि देशभक्ति के मामले में कोई हमसे टक्कर नहीं ले सकता ? या जो हुनर भारतीयों के पास है, उसकी मिसाल और कहीं नहीं मिल सकती ?

जिन लोगों ने हिन्दुस्तान में बिजली बनाने के लिए एनरॉन को बुलाया था, वे भारतीय थे। अब फिर से फ्रांस की एक कंपनी को न्यूक्लीयर पॉवर के उत्पादन के लिए बुलाया गया है। क्या बिजली बनाना भारतीयों के लिए वर्जित है ? या बिजली बनाने जैसा घटिया काम भारतीय करने लग गए, तो गर्व करने लायक क्या बचेगा ? जो काम विदेशी कर सकते हैं, वही काम भारतीय करने लग गए तो क्या हमारे इतिहास में एक बदनुमा दाग नहीं लग जाएगा ?

भारतीयों का भी एक इतिहास रहा है। इतिहास बेहद क्रूर और बेरहम होता है। किसी को भी नहीं बख्शता। भारतीयों का इतिहास एक हजार साल की गुलामी का इतिहास रहा है। शक, हूण, तातारी, लोदी, मुगल और अंग्रेज हमारी शस्य-श्यामला धरती पर राज करते रहे। न संसद में और न ही सड़क पर इस बात को आज कोई याद रखना चाहता है। यह सवाल हर उस शख्स से पूछना चाहिए जो खुद को भारतीय बतलाने में गर्व महसूस करता है।

जिस मुल्क में ढाई लाख किसानों ने आत्महत्याएँ की हों, जिस मुल्क में कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा हो, और जिस मुल्क में करोड़ों लोगों को एक वक्त की रोटी भी नसीब न होती हो, वहाँ किस पर गर्व करें ? यह महज नसीब की बात नहीं है। इस शर्मिन्दगी के लिए हम लोग जिम्मेदार हैं।

जो कौम अपनी गुलामी के दंश को नहीं अनुभव करती, उसका गुलाम हो जाना फिर से तय है। मुगलों को हमने नहीं बुलाया। उन्होंने छह सौ वर्शों तक राज किया। अंग्रेजों को हमने नहीं बुलाया। उन्होंने दो सौ सालों तक राज किया। इस बात का तो कयास भी नहीं लगाया जा सकता कि जिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों को हमने (सरकार ने) दावत देकर बुलाया है वे हिन्दुस्तान पर कितने सालों तक राज करेगी ?

हद दर्जे की गरीबी, जहालत और खौफ में जीने वाला व्यक्ति गर्व से नहीं कह सकता कि वह भारतीय है। ऐसे हालात के लिए हमारी सरकारें, राजनेता और अफसरशाही जिम्मेदार हैं, जो बेशर्मी के साथ और पूरी रफ्तार के साथ देश को बेचने का काम कर रही है। लेकिन जिम्मेदारी हमारी भी है। जब हम विदेशी शीतल पेय की एक बोतल गटकते हैं, तो प्रति बोतल हिन्दुस्तान का सात रूपया बाहर चला जाता है। याने राज लाखों सॉफ्ट ड्रिंक्स पी-पीकर हम अपने ही मुल्क को कंगाल बनाने का काम करते हैं। विदेशी कंपनी के मिनरल वाटर का पानी हम भारतीय पीते हैं और धनवान अमरीका बनता है।

हमारे खान-पान, रहन-सहन और सोच-विचार पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा है। समूचा सिस्टम और मीडिया इनके साथ खड़ा है। भारत के तमाम बड़े उद्योगपति इनके साथ खड़े हैं। अगर हम सचमुच चाहते हैं कि खुद को गर्व से भारतीय कह सकें तो शुरूआत अपने घर से करनी पड़ेगी। विदेशी उत्पादनों के लिए घर के दरवाजे बन्द करने पड़ेंगे। सप्लाई लाइन बंद हो जाएगी तो जंग जीतने में आसानी हो जाएगी। दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात - हम उसी राजनैतिक पार्टी को वोट देंगे जो हिन्दुस्तान से बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भगाने का ऐलान करेगी।

ईस्ट इंडिया कंपनी का नाम बदल गया है। नया नाम है - ईट (EAT) इंडिया कंपनी ! हाल ही में दिल्ली के एक सेमिनार में अन्तरराष्ट्रीय व्यापार संगठन के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा - ’हम भारतीय जनता के शुक्रगुजार हैं। आज हिन्दुस्तान में चार हजार विदेशी कम्पनियाँ काम कर रही हैं। भारत की जनता ने साथ नहीं दिया होता तो सफलता का यह मुकाम हासिल नहीं किया जा सकता था।’ ऐ खुदा ! चार हजार ईट इंडिया कंपनियाँ ! हमारे रहनुमा सुनेंगे तो नहीं, फिर भी उनकी खिदमत में पेश है यह शेर - ‘बरबाद गुलिस्तां करने की, बस एक ही उल्लू काफी था ! हर शाख पे उल्लू बैठा है, अब हाले - गुलिस्तां क्या होगा ?

संपर्क:
अक्षय जैन, 13 रशमन अपार्टमेंट, उपासनी हॉस्पिटल के ऊपर, एस. एल. रोड,
मुलुंड (प.), मुंबई- 400 080, फोन: 022 - 25601588, मो. 08080745058



बहस : तेल का खेल


-देविंदर शर्मा

तेल

केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने हाल ही में अमरीकी कम्पनियों पर भारत के तिलहन उत्पादन कार्यक्रम को पटरी से उतारने का आरोप लगाया है. कुछ दिनों पहले विदर्भ के दौरे पर गए पवार ने कहा- पूरे अमरीका में सोयाबीन का उत्पादन जेनेटिकली मोडीफाइड तरीके से किया जाता है. आपने (अमरीका ने) अपने देश में यह तकनीक अपनाई है, लेकिन आप भारत में ऐसा नहीं होने देते हैं. यह ठीक नहीं है और यह चेतावनी सूचक है."

इसके कुछ दिनों बाद ही पंजाब कृषि आयोग के अध्यक्ष डॉ. जी.एस. कालकट ने कहा- “भारत खाद्य तेलों और दालों का आयात करता है यानी दूसरे देशों से खरीदता है.पंजाब में इनका उत्पादन क्यों नहीं किया जा सकता?” पर अगले ही वाक्य में उन्होंने मक्के के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद की मांग की. ऐसी ही मांग उन्होंने तिलहन और दलहन के लिए नहीं की. एक और बात, कमीशन फॉर एग्रीकल्चरल कॉस्ट एंड प्राइसेस (सीएसीपी) के चेयरमैन डॉ.अशोक गुलाटी खाद्य तेल के बढ़ते आयात के लिए उस पॉम ऑयल की वकालत करते हैं, जिसके पेड़ पर्यावरण के लिए विनाशकारी होते हैं.

खाद्य तेलों के आयात में काफी वृद्धि हुई है. 2012 के अंत तक यानी नवम्बर 2011 से लेकर अक्टूबर 2012 तक खाद्य तेलों का आयात 90.1 लाख टन से ज्यादा पहुंच गया है, जिसकी अनुमानित कीमत 56,295 करोड़ रूपए के आसपास बैठती है. वर्ष 2006-07 और 2011-12 के बीच खाद्य तेलों का आयात 380 प्रतिशत तक बढ़ गया. ऐसे में तत्काल इस बात की जरूरत है कि आयात घटाया जाए. इसका लाभ यह होगा कि हर वर्ष 56,295 करोड़ रूपए जो विदेशी विनिमय में इंडोनेशिया, मलेशिया, अमरीका और ब्राजील के किसानों के हाथ में चले जाते हैं, वो भारत के किसानों के हाथ में आएंगे. भारत इन्हीं देशों से खाद्य तेल खरीदता है.

क्या भारत के पास तिलहन की विकसित किस्में नहीं हैं, जिससे उत्पादन में वृद्धि नहीं हो पा रही है? या क्या शरद पवार, जी.एस. कालकट, डॉ. अशोक गुलाटी जानबूझकर ऐसे बयान जारी कर रहे हैं और गलत राह पर चल पड़े हैं? भारत की ओर देखिए. वर्ष 1993-94 में यह खाद्य तेलों के मामले में लगभग आत्मनिर्भर था. धीरे-धीरे यह खाद्य तेल में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा आयातक देश बन गया.

पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी बढ़ते आयात से चकित थे. मुझे याद है, उन्होंने 1985 में खाद्य तेल के बढ़ते आयात पर चिन्ता जताई थी. तब यह 1500 करोड़ रूपए तक पहुंच गया था. एक बार उन्होंने मुझसे पूछा था, "मैं यह समझ सकता हूं कि हम पेट्रोल और खाद क्यों खरीदते हैं, क्योंकि हमारे यहां इसका पर्याप्त उत्पादन नहीं होता है, लेकिन हम खाद्य तेल क्यों खरीद रहे हैं, जब हम इसका उत्पादन कर सकते हैं."

उन्होंने सही दिशा में कदम उठाते हुए ऑयलसीड्स टेक्नोलॉजी मिशन की शुरूआत की, ताकि उत्पादन बढ़े और आयात घटे. उनका प्रयास रंग लाया. अगले दस वर्षो में ही 1993-94 तक भारत खाद्य तेल उत्पादन में लगभग आत्मनिर्भर हो गया. भारत घरेलू जरूरत का 97 प्रतिशत तक उत्पादन करने लगा. इसे "पीली क्रांति" का नाम दिया गया, लेकिन उपेक्षा के कारण धीरे-धीरे स्थितियां खराब हुई.

जो किसानों के लिए नकदी फसल साबित हो सकती थी, वह मुख्य निर्यातक देशों के लिए लाभकारी साबित हुई.

आयात शुल्क कम करने के लिए स्वयं शरद पवार जिम्मेदार हैं. 2004 में आयात शुल्क 75 प्रतिशत था, कोटा सिस्टम भी था, इसके बावजूद कच्चे खाद्य तेल शोधित खाद्य तेल का आयात सस्ता था. वर्ष 2010-11 में कच्चे खाद्य तेल का आयात शुल्क शून्य कर दिया गया और शोधित खाद्य तेल पर आयात शुल्क 7.5 प्रतिशत. ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं, वर्ष 2006 में 47 लाख टन खाद्य तेल आयात हुआ था, जो वर्ष 2012 में 90.1 लाख टन तक पहुंच गया.

ऐसा करते हुए शरद पवार बहुत आसानी से खाद्य तेल आयात को बढ़ाकर जेनेटिकली मोडिफाइड यानी जीएम सोयाबीन को बढ़ावा दे रहे हैं. वह एक बात नहीं बता रहे हैं, शोध के अनुसार, गैर-जीएम प्रजाति की तुलना में जीएम सोयाबीन का उत्पादन 4 से 20 प्रतिशत कम होता है. अत: यह कतई समझ में नहीं आता है कि जीएम प्रजाति के सोयाबीन को क्यों बढ़ावा दिया जा रहा है.

यह कहना भी गलत है कि तिलहन की मांग को पूरा करने के लिए 30 प्रतिशत ज्यादा क्षेत्र में तिलहन की फसल उगानी पड़ेगी. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान के अलावा महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के कुछ क्षेत्रों को आसानी से गेहूं व चावल से सरसों व सोयाबीन की फसल की ओर लाया जा सकता है. इससे जहां गेहूं और चावल के भंडारों पर दबाव घटेगा, वहीं सूखी जमीन के किसानों को ज्यादा आय भी हासिल होगी. इसके अलावा भूजल का उपयोग घटेगा, क्योकि तिलहन उत्पादन में ज्यादा पानी की जरूरत नहीं पड़ती है.

इसके उलट पॉम आयल प्लांटेशन हानिकारिक सिद्ध हो रहे हैं. वर्ल्डवाच इंस्टीटयूट ने बताया है कि ताड़ रोपन से मरूस्थलीकरण को बढ़ावा मिलता है. इसके अलावा इससे ग्लोबल वार्मिग भी बढ़ती है, क्योंकि ताड़ के पेड़ उष्णकटिबंधीय जंगलों की तुलना में 10 गुना ज्यादा कॉर्बन डाइ ऑक्साइड उत्सर्जित करते हैं.

हर हाल में अनुभवों से यह स्पष्ट है, उत्पादन बढ़ाने के लिए किया गया कोई भी प्रयास तब तक लाभदायी नहीं होगा, जब तक आयात शुल्क को 130 से 150 प्रतिशत तक नहीं बढ़ाया जाएगा. यदि अनुकूल नीतियां बनें, तिलहन उत्पादन आर्थिक रूप से लाभदायी हो, तो फिर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान जैसे राज्य बहुत आसानी से तेल के आपूर्तिकर्ता हो जाएगा. साथ ही, प्रसंस्करण उद्योग से रोजगार भी बढ़ेंगे. हम ऐसा क्यों नहीं कर रहे हैं, यह एक बड़ा सवाल है .

सरोकार : कंपनी राज की वापसी का एफ.डी.आई.


- डॉ. कृष्णस्वरूप आनन्दी

हमारा देश बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेट महाबलियों का उपनिवेश बनता गया है। उन्होंने हमारी अर्थव्यवस्था के प्रायः सभी अंगों को अपने शिकंजे में ले लिया है। विनिर्माण, वित्त, व्यापार, औषध, दूरसंचार, सूचना-तन्त्र, बुनियादी ढाँचा (इंफ्रास्ट्रक्चर), प्रतिरक्षा, मीडिया, शिक्षा, हॉस्पिटैलिटी, पर्यटन जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों को अपनी गिरफ़्त में लेने के बाद उन्होंने खेती-किसानी और अब खुदरा कारोबार पर अपनी नजरें गड़ा दी हैं। इन्हें कब्जे में लेकर देश में वे अपने औपनिवेशिक तन्त्र को पुख़्ता और मुकम्मल करना चाहते हैं। ये दोनों ही क्षेत्र हमारे अर्थतन्त्र की बुनियाद में हैं।

कृषि क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेट समूहों की दख़ल बढ़ती गयी है। बीज, खाद, कीटनाशी रसायन, यन्त्रोपकरण जैसे निवेश्य पदार्थों पर अधिकांशतः उनका ही एकाधिकार है। किसान अपनी उपज पर समुचित या लाभकारी मूल्य पाने से वंचित हैं। बढ़ती लागत, घटती सब्सिडी (राज राहत), घाटे की उपज, सिकुड़ता रकबा- इन सबके चलते किसान बदहाली में खेतीबाड़ी कर रहे हैं। बहुराष्ट्रीय एग्रीबिज़नेस कॉरपोरेशन इस बात को लेकर गदगद हैं कि हिन्दुस्तान के ज़्यादातर किसान कृषिकर्म को छोड़ने के लिए तैयार बैठे हैं इसलिए दुनिया-भर के दैत्याकार एग्रीबिज़नेस कॉरपोरेशन चाहते हैं कि मौजूदा कानूनों में ऐसे बदलाव किये जायँ ताकि वे किसानों से सीधे बेरोकटोक उनकी उपज खरीद सकें, उनसे ठेके पर खेती करा सकें और अन्त में उनके खेत हड़प सकें। इस प्रकार ‘किसानों द्वारा खेतीबाड़ी’ के बजाय ‘कॉण्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग’ या ‘कॉरपोरेट फ़ार्मिंग’ का रास्ता साफ़ होगा। जहाँ एक ओर खेती-किसानी पर कब्ज़ा जमाने के लिए एग्रीबिजनेस कॉरपोरेशन अपने पाँव पसार रहे हैं, वहीं दूसरी ओर देश के कोने-कोने में फैले खुदरा कारोबार को अपने हाथों में लेने के लिए वैश्विक कॉरपोरेट परचूनिया कारोबारी यहाँ दस्तक दे रहे हैं। इन दोनों कॉरपोरेट बिरादरियों को चाहिए देशव्यापी विश्वस्तरीय बुनियादी ढाँचागत सुविधाओं का संजाल। इसीलिए देश-भर में एक्सप्रेस वे/नेशनल हाईवे, इण्डस्ट्रियल/इंफ्रास्ट्रक्चर कॉरीडॉर, हाई-टेक् टाउनशिप, शॉपिंग मॉल, कारोबारी कॉम्पलेक्स आदि बनाने वाली बड़ी-बड़ी परियोजनाओं पर तेज़ी से काम चल रहा है। इनके पूरा होने में अगर कहीं कोई रोड़ा आता है, तो उसे फौरन हटाने के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में सीसीआई (कैबिनेट कमेटी ऑन इंवेस्टमेण्ट्) का गठन अभी हाल ही में हुआ है। यह सुपर-कैबिनेट भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन, प्रतिरक्षा, ग्रामीण विकास तथा आदिवासी एवं पंचायती राज मन्त्रालयों की आपत्तियों को दरकिनार करेगी।

खुदरा कारोबार के वाल-मार्टीकरण से न केवल फुटपाथ पर या सड़क के किनारे आबाद अगणित फुटकर व्यवसाय, गली-नुक्कड़ चौराहे के स्टोर, जगह-जगह चल रही छोटी-मझोली परचूनी दुकानें, हाट-बाजार, गुमटियाँ, ठेले, फेरी वाले धन्धे ये सब-के-सब चौपट होंगे; बल्कि खेती-किसानी का भी कॉरपोरेटीकरण होगा। देश के लोगों की जीवन-शैली अपसंस्कृति से अभिशप्त होगी, उनका मानस औपनिवेशीकृत होता जायेगा और वे अपनी जड़ों से कटते जायेंगे। वैश्विक कॉरपोरेट महादैत्य ऐसा भारत बनाने की तैयारी में लगे हुए हैं जो कहीं से भी स्वावलम्बी न रह जाय। स्वाधीनता, आत्मनिर्भरता, संस्कृति, सम्प्रभुता और स्वायत्तता के लिए वे कोई भी गुंजाइश नहीं छोड़ना चाहते।

वैश्विक कॉरपोरेट समूहों ने मिलकर देश पर हमला बोल दिया है। एफडीआई का हथियार चलाकर वे हमारा अस्तित्व मिटाना चाहते हैं। एकएक करके सभी क्षेत्रों पर एकाधिकार क़ायम करने का  उनका सपना है। उनके इस सपने को चकनाचूर करना आज की सबसे बड़ी चुनौती है। देश के नौजवानों, छात्रों, कारोबारियों, किसानों, समाजकर्मियों, बुद्धिजीवियों और आम लोगों को एफडीआई के हमले को नाकाम करने के लिए लामबन्द होकर आगे आना होगा। देश का राजनीतिक नेतृत्व और सत्ता-प्रतिष्ठान कॉरपोरेट उपनिवेशवाद का एजेण्ट बन चुका है। उनसे अब उम्मीद करना बेकार है। कॉरपोरेटीकरण और उसके हथियार एफडीआई के खिलाफ जगह-जगह जन-संघर्ष छिड़े और उससे लोगों के बीच से नये नेतृत्व का आविर्भाव हो ताकि देश में लोकशक्ति-संचालित और कॉरपोरेट-मुक्त नयी व्यवस्था का अधिष्ठान हो। कॉरपोरेट शक्तियों के रहते नयी समाज-रचना असम्भव है। पहला अनिवार्य क़दम है कि उन्हें देश से बाहर किया जाय और फिर उसके बाद तृणमूल से ऊपर तक स्वराज्य की संरचना की जाय।

लोगों के बीच इस बात को लेकर जाने की जरूरत है कि एफडीआई को नाकाम करने के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कारोबार को ठप करना होगा। उनके व्यापारिक/व्यावसायिक प्रतिष्ठानों, उत्पादन-संयन्त्रों और कारोबारी अड्डों को जब तक काम करने से रोका नहीं जायेगा, तब तक देश में एफडीआई का उन्मुक्त प्रवाह और खुला खेल जारी रहेगा। इसके साथ ही, देश में ऐसा माहौल बनाना होगा जिससे कोई भी वैश्विक कॉरपोरेट घराना देश में घुस करके कारोबार करने का दुस्साहस न कर सके। जब भारतीय जनगण से विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ खौफ खायेंगी, तब उनके छुटभैये यानी जूनियर पार्टनर देशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की क्या बिसात! (पीएनएन)


पुस्तक चर्चा : 'प्रिंटलाइन' के भीतर-बाहर





‘‘प्रिंट लाइन के भीतर के लोग प्रिंट लाइन का संयम तोड़कर बाहर आ गये हैं। उसके बाहर ढेर सारे अपनों के बीच यह पहचानना मुश्किल हो गया है कि कौन मीडिया से है और कौन नहीं।’’

जाहिर है कि वह जमाना अब चला गया जब ‘प्रिंट लाइन’ के भीतर के लोग प्रिंटलाइन की मर्यादा को न केवल समझते थे बल्कि इसका सम्मान करते हुए कभी भी ‘लक्ष्मण-रेखा’ को लांघने की कोशिश नहीं करते थे। अब तो लोग ‘प्रिंट लाइन’ के भीतर दाखिल ही इसलिये होते हैं कि उन्हें ‘प्रिंट लाइन’ के बाहर आने का कोई बढ़िया-सा अवसर हासिल हो सके। पिछले लगभग चार दशकों में हिंदी पत्रकारिता के उतार (चढ़ाव तो शायद ही हो! ) की पूरी कथा परितोष चक्रवर्ती के नवीनतम उपन्यास प्रिंट लाइन’ में पढ़ी जा सकती है, जिसे हाल ही में ‘ज्ञानपीठ’ ने प्रकाशित किया है। किताब का लोकार्पण पिछले दिनों रायपुर में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने किया व इस समारोह में देशभर के लेखक, पत्रकार, आलोचक-चिंतकों ने भागीदारी की। छत्तीसगढ़ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के इस कार्यक्रम की अध्यक्षता कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने की।

‘धर्मयुग’ में नहीं जाने से लेकर ‘रविवार’ को छोड़ने तक परितोष के पास पत्रकारिता का एक लंबा अनुभव है पर उनके पाँवों में ‘भँवरी’ (चकरी) लगी हुई है इसलिये वे किसी एक जगह टिककर नहीं रह पाते। नौकरियाँ छोड़ने का रोग उन्हें खाज की तरह रहा है जो उन्हें कोई 15-16 जगह घुमाता रहा और इसी सिलसिले में अनेकानेक लोग उनके संपर्क में आए जो इस उपन्यास के पात्र हैं - कई वास्तविक नामों से और कुछ काल्पनिक। लगभग हकीकत और थोड़े फसाने को लेकर रचा गया यह उपन्यास एक ओर तो विगत् चार दशकों की हिंदी पत्रकारिता का लेखा-जोखा है तो दूसरी ओर नायक ‘अमर’ की जीवनी भी जो इस समस्त घटनाक्रम में सक्रिय रूप से सम्मिलित है।

उपन्यास का एक किरदार ‘कप्पू’ भी है, जिसके साथ काम करने का अवसर इन पंक्तियों के लेखक को भी हासिल हुआ, इसलिये उपन्यास व लोकार्पण कार्यक्रम के विस्तार में जाने से पहले -निश्चय ही क्षमायाचना के साथ- कुछ निजी अनुभव। उन दिनों अखबार में साहित्यिक पत्रकारिता का अवसान पूरी तरह नहीं हुआ था और अखबार में नया होने के कारण मैं हरेक पत्रकार को ‘साहित्यकार’ समझते हुए उन्हें बड़ी श्रद्धा व आदर के साथ देखा करता था। परितोष, दीवाकर मुक्तिबोध (गजानन माधव मुक्तिबोध जी के सुपुत्र व रायपुर के वरिष्ठ पत्रकार ) व कप्पू उर्फ निर्भीक वर्मा उसी अखबार में काम करते थे। मैंने पहले भी कहीं जिक्र किया है कि अखबार का माहौल दमघोंटू था और हर वक्त कर्फ्यू जैसा लगा रहता था, जहाँ किसी को भी हँसते-बोलते देख लिये जाने पर फौरन गोली मार दिये जाने का अंदेशा बना रहता था। दीवाकर स्वाभाव से ही गंभीर थे और मैंने उन्हें प्रायः चुपचाप अपना काम करते हुए ही देखा था। ‘कर्फ्यू’ तोड़ने का काम या तो परितोष करते या कप्पू और इसलिये ही हम नये ‘रंगरूटों’ के हीरो थे। एक बार प्रधान संपादक जी ने कप्पू को समय पर अखबार के दफ्तर में आने की सलाह दी तो ‘‘टाइम पर आना और टाइम पर जाना’’ के मौन नारे के साथ कप्पू घर से एक बड़ी -सी अलार्म घड़ी लेकर आने लगे जो टेबल में उनके ठीक सामने रखी रहती, ताकि समय पर जाने में चूक न हो। लेकिन असल किस्सा कुछ और है।

मैंने अर्ज किया कि तब साहित्यिक व ‘मिशन वाली पत्रकारिता’ का अंत तो नहीं हुआ था लेकिन नयी तकनीक के आगमन के साथ बाजारवाद की पदचाप सुनाई पड़ने लगी थी, जो इतनी महीन थी कि कम से कम हम जैसे नये रंगरूटों की पकड़ से बाहर थी। कोई नया आदमी मिलता और कप्पू से परिचय कराया जाता तो काम के बारे में कप्पू का कहना होता, ‘‘जी मैं रद्दी बेचने का काम करता हूँ।’’ परितोष इस पर मुस्कुराते रहते और मैं आहत होता कि पत्रकारिता जैसे ‘महान’ व ‘पवित्र’ कार्य को कप्पू इस तरह लांछित कर रहे हैं और उन्हें परितोष का मूक समर्थन हासिल है। बहुत बाद में जब दिल्ली में एक ट्रेड यूनियन के दफ्तर में काफी दिनों तक अपना डेरा रहा तो उन दिनों अंग्रेजी के दो बड़े अखबारों में कीमत घटाकर ज्यादा पन्ने देने की प्रतिस्पर्धा चल रही थी। एक दिन बातों ही बातों में अखबार के हॉकर ने बताया कि ‘‘लंबे समय की मजबूरी है, वरना अखबार को बाँटने के बदले यदि उसे रद्दी में बेच दिया तब भी उतने ही पैसे मिल जायेंगे।’’ मुझे उसी क्षण कप्पू व परितोष की याद आयी और दरअसल ‘प्रिंट लाइन’ की समस्त कथा उस पूरे दौर कथा है जिसमें सरोकारी पत्रकारिता रद्दी बेचने के कारोबार में बदल गयी।

छत्तीसगढ़ के छोटे-से गाँव से उपन्याय का नायक अखबारी लेखन की शुरूआत करता है और रायपुर के एक अखबार से सक्रिय पत्रकारिता में प्रवेश करते हुए अंततः देश की राजधानी दिल्ली में पहुँचता है जहाँ उसकी नियति बाजारू हथकंडों द्वारा छले जाने के लिये अभिशप्त है। लेकिन मजे की बात यह है कि ‘मिशन’ के खाज का मारा नायक अब भी ‘‘सब कुछ लुटाकर होश में आये तो क्या किया’’ कहने के बजाय ‘‘जो घर फूँके आपना’’ के मंत्र का जाप करता दिखाई पड़ता है। इसलिये लक-दक गाड़ियों में घूमने व लाखों की सैलरी लेने वाले आज के पत्रकारों के लिये यह पत्रकार किसी अजूबे से कम नहीं है जो संपादक-प्रबंधक द्वारा छूट दिये जाने पर भी अपने लिये न्यूनतम वेतन तय करता है और एक डूबती हुई पत्रिका को बचाने और चलाने के लिये अपना वेतन व खर्च कम कर लेता है।

लेकिन इस आत्मकथात्मक उपन्यास में केवल पत्रकारिता की कथा नहीं है। बहुस-सी और भी कथायें हैं जो साथ-साथ चलती रहती हैं। छत्तीसगढ़ के गाँवों कस्बों में वर्ण-व्यवस्था, गाँवों से मजदूरों का पलायन, आपातकाल के काले दिन, पृथक छत्तीसगढ़ का आंदोलन -आदि अनेक प्रसंग कथा में बार-बार में आते हैं ओर इस कथा को अत्यंत रोचकता के साथ इतिहास की तरह भी पढ़ा जा सकता है। छत्तीसगढ़ की कथा यहाँ की प्रमुख पैदावार धान के उल्लेख के बगैर पूरी नहीं हो सकती सो कुछ पन्नों पर आप धान की विभिन्न किस्मों से भी रू-ब-रू हो सकते है। सबसे बड़ी बात यह है कि किताब को पढ़ने के लिये प्रयास की जरूरत नहीं है, किताब स्वयं को पढ़ाती चलती है। यह रोचकता मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को भी नजर में आयी और उन्होंने कहा कि इस किताब को पढ़े बगैर मुझे चैन नहीं आयेगा, अभी थोड़ी पढ़ी तो बेचैन हूँ। इसे पढ़ते हुए बहुत आनंद आ रहा है। आलोचकों पर चुटकी लेते हुए उन्होंने कहा कि आप विद्वानों को तो और भी अधिक आनंद आयेगा।

दिल्ली के वरिष्ठ समीक्षक व मुख्य वक्ता डॉ. अजय तिवारी ने इसे दांपत्य-प्रेम का अद्भुत उपन्यास बताया जो प्रेमचंद के यहाँ दिखाई पड़ता है। उन्होंने कहा कि सिर्फ इसी वजह से उपन्यास की कुछ कमियों को -जो उपन्यासकार की हड़बड़ी की वजह से उत्पन हुई हैं -खारिज किया जा सकता है। दिल्ली के ही कवि व समीक्षक डॉ. जितेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा कि यह किसी निष्कर्ष में पहुँचने की जल्दबाजी वाला उपन्यास नहीं है बल्कि यहाँ पर अर्थ की अनेक सभावनायें हैं। यह प्रश्न पूछने वाली, प्रश्न पूछने का शऊर पैदा करने वाली, बेचैनी उत्पन्न करने वाली व सच को सच की तरह कहने का साहस प्रदान करने वाली रचना है। अपने अध्यक्षीय भाषण में डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने कहा कि उन्हें इस बात का फख्र हासिल है कि उन्हें इस रचना को ड्राफ्ट दर ड्राफ्ट लेखन -प्रक्रिया के दौरान ही पढ़ने का गौरव हासिल है, ठीक वैसे ही जैसे कोई व्यक्ति अपनी नयी गाड़ी के इंजन को रवां करने के लिये उसे अपने मित्र को सौंप देता है।

चर्चा का सूत्र थमाने के लिये परितोष ने भी संक्षिप्त वक्तव्य दिया। कहते हुए वे थोड़े भावुक हो गये, हालांकि उनका सेंस ऑफ ह्यूमर विपरीत परिस्थितियों में कुछ ज्यादा ही जागृत हो जाता है। जब वे दिल्ली से अपनी पत्रिका निकाल रहे थे और घाटे में चल रहे थे तो अचानक मैंने देखा कि पत्रिका के अंग्रेजी संस्करण के शुभारंभ की घोषणा की गयी है। मैंने तुरंत फोन घनघनाया और इस उलट-बाँसी का आशय पूछा। परितोष ने कहा कि ‘‘तुम नहीं समझोगे। गरीब आदमी ही ज्यादा बच्चे पैदा करता हैं।’’ लेकिन यहाँ पर वे रूआँसे-से हो गये। पता नहीं ऐसा क्यों होता है कि तस्वीर खिंचवाते हुए प्रेमचंद के जूते फटे हुए दिखाई पड़ते हैं और बोलते हुए परितोष का गला रूंध जाता है! हिंदी-समाज अपने लेखकों के साथ ऐसा बर्ताव क्यों करता है?











- दिनेश चौधरी


रंगमंच : मुक्तिबोध के बहाने


-संजय पराते की रिपोर्ट

यह रायपुर इप्टा द्वारा आयोजित 'मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाटय समारोह' (11-15 जनवरी, 2013) का 16वां आयोजन था। 16वां वर्ष किशोरावस्था से वयस्कता की ओर संक्रमण की अवस्था होती हैं। अपनी तमाम छोटी-मोटी कमजोरियों के बावजूद इस आयोजन ने एक बार फिर आश्वस्त किया कि रायपुर की रंग सक्रियता सिर्फ रंगमंच तक सीमित नहीं है, बलिक रंगकर्म के सरोकारों तक विस्तृत है। यह आयोजन केवल नाटय प्रदर्शन के लिए ही नहीं, बलिक विचार-विमर्श और रंग-संगीत के लिए भी याद किया जाएगा। रंग-उपादानों के घोर अभाव के बावजूद रायपुर की रंग-ऊर्जा किसी भी महानगर के रंगमंच को टक्कर देने का मादृदा रखती है।

मुक्तिबोध को हर साल याद करना महत्वपूर्ण है, लेकिन इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि यह स्मरण रस्म-अदायगी भर नही है। नाम के अनुरूप ही पूरा आयोजन 'मुक्तिबोधी' था- उस उददेश्य के प्रति समर्पित, जिसके लिए मुक्तिबोध ता-उम्र संघर्ष करते रहे। सड़ी-गली और पिछड़ी चेतना से मुक्ति के लिए संघर्ष का यह बोध ही इस आयोजन को विशिष्ट बनाता है और इप्टा के रंगकर्म को दूसरे सभी आयोजनों से अलग करता है। आखिर मानव मुक्ति का अभियान- जो उसके वर्गीय शोषण के संघर्ष से सीधा जुड़ा है- कभी एकांगी तो रहेगा नहीं। वह न केवल बहुआयामी है, बलिक बहुरंगी भी है। एकांगिता और एकरंगिता तो मनुष्य को केवल संकीर्ण ही बना सकते हैं और संकीर्णता कभी किसी को मुक्ति नहीं देती। वामपंथी राजनीति की संकीर्णता के साथ भी यही बात लागू होती है, जिसे वामपंथी संस्कृति-कर्म ही तोड़ता है। इसी मायने में इप्टा का यह संस्कृति-कर्म महत्वपूर्ण है कि वामपंथ की जड़ता और खामोशी को ये तोड़ने का काम करता है- यह मनुष्य को मनुष्य बनाने का रचनात्मक अभियान है। इसीलिए ये आयोजन 'मुक्तिबोधी' था।

लेकिन समारोह की पहली संध्या पर ही खलल पड़ा- वैसे ही, जैसे यह सामान्य धारणा है कि शुभ काम में खलल तो पड़ता ही है। उसके बिना काम की 'शुभता का महत्व स्थापित नहीं हो पाता। आना तो था बनारस की किसी टीम को 'कामायनी का प्रदर्शन करने, लेकिन मोबाइल युग में संचार ठप्प हो गया और खैरागढ़ संगीत विश्वविधालय के नाटय विभाग की टीम ने वाहवाही लूटी। उन्होंने डा. योगेन्द्र चौबे के निर्देशन में हरिशंकर परसाई के व्यंग्य 'वैष्णव की फिसलन' का मंचन किया। हरिशंकर परसाई धर्म के गोरखधंधे से अच्छी तरह वाकिफ थे। इस गोरखधंधे पर उन्होंने पूरी जिंदगी चोट की और बदले में मार खाई। मार से उनके व्यंग्य की धार और तीखी हुई। 'वैष्णव की फिसलन' इसका प्रमाण है। यह पूरी व्यवस्था के फिसलने और ढहने की कहानी है- सामाजिक नैतिकता, अर्थव्यवस्था और राजनीति के- सबके फिसलने-ढहने की कहानी। जब धर्म में धंधा घुस जाता है और यह धधा राजनीति से हाथ मिला लेता है, तो ईश्वर भी पूरी व्यवस्था का बंधक बन जाता है। उसका विकृत मानव विरोधी, सभ्यता विरोधी, धर्म विरोधी चेहरा उजागर होने लगता है। इसीलिए धर्म को राजनीति से अलग रखने की जरूरत है और धंधे से भी। धर्मनिरपेक्षता की राजनीति की जरूरत भी इसीलिए बनी हुई है- वरना शोषणकारी व्यवस्था उत्पीडि़त जनता से उसकी अज्ञानता का फायदा उठाकर पूजा-पाठ करवाती रहेगी, गणेश की मूर्तियों को दूध पिलवाती रहेगी, मसिज़दें ढहाती रहेगी और दंगे करवाकर वोट बटोरती रहेगी। डा. योगेन्द्र चौबे इसी मायने में सफल निर्देशक हैं कि परसाई की सोच के अनुसार धर्म के धंधे को राजनीति के धंधे से जोड़ने में सफल रहे। शमशेर आलम वैष्णव और धीरज सोनी विष्णु के रुप में खूब जमें। संगीत व मंच सज्जा भी आवश्यकतानुसार अच्छी थी।

नाटय समारोह की दूसरी संध्या रस-रंग को समर्पित रही। बोधायन के प्रहसन पर आधारित नाटक 'भिक्षुक और गणिका का प्रदर्शन किया फोक आर्ट, चंडीगढ़ के ओजस्वी कलाकारों ने और निर्देशिका थीं डा. रानी बलबीर कौर। डा. कौर को इप्टा द्वारा स्वर्गीय कुमुद देवरस सम्मान से सम्मानित किया गया। यह सम्मान रंगमंच से जुड़ी महिला को दिया जाता है। डा. कौर पूर्व में भी कई सम्मानों से नवाजी जा चुकी हैं। उनकी ये प्रस्तुति बेहद आकर्षक थी और रंगमंच के सभी रंगों की झलक दिखला रही थी। पात्रों का रंगाभिनय, उनकी शारीरिक गतियां, रंग-संगीत और प्रकाश सभी यह अहसास करा रहे थे कि रंगदर्शक एक लोकरंग का रसास्वादन कर रहे हैं। लेकिन इस नाटक की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि नाटक का पूरा उत्तरार्ध गैर-यथार्थवाद की भावभूमि पर खड़ा है और इसीलिए दूसरे निर्देशकों की तरह वे भी इसे आधुनिक संदर्भों से जोड़ने में असफल रहीं।

संस्कृत साहित्य की एक धारा दर्शन के क्षेत्र में भाववाद और भौतिकवाद के संघर्ष पर टिकी है। बोधायन का प्रहसन भी इसी संघर्ष को अभिव्यक्त करता है और अंत में भाववाद को समर्पित होता है। संन्यासी के 'मोक्ष और उसके शिष्य शांडिल्य का 'माया-मोह इसी संघर्ष की अभिव्यकित है। यह नाटक सातवीं सदी का है और हम इक्कीसवीं सदी मे जी रहे हैं। इन 14-15 सदियों में दर्शन और विचारधारा के क्षेत्र में मानव समाज ने एक लंबी छलांग लगायी है। अब आत्मा और अध्यात्म शुद्धता और पवित्रता के दायरे से निकलकर व्यवसाय बन गया है और आधुनिक मानव समाज की समस्याओं का हल अध्यात्म और आत्मा की पवित्रता के दायरे में खोजना बेतुका है। इसीलिए बोधायन के प्रहसन को आधुनिक आत्मा देने की जरूरत है, वरना रंग-तत्वों से सुसजिजत रंगमंच दर्शकों का केवल मनोरंजन कर सकता है।

नाटय समारोह की तीसरी संध्या में फिर परसाई छाये रहे। पुणे के निर्देशक प्रसाद वानारसे ने 'लड़ी नजरिया प्रस्तुत की, जिसमें पात्रों का अभिनय जितना मंझा हुआ था, संगीत पक्ष भी उतना ही जोरदार और रंग-प्रकाश दोनों के अनुकूल। नाटक में व्यंग्य तो था ही, सामाजिक-राजनैतिक मुददे भी थे, इन मुददों के विविध पक्ष भी थे, संवेदना थी, आक्रोश था और सबसे बढ़कर सौदेश्यता भी। प्रसाद के लिए रंगमंच के सरोकार बहुत ही स्पष्ट हैं और 'लड़ी नजरिया' एक लोकरंजक नाटक साबित हुआ। शुरू से अंत तक रंगदर्शक इस नाटक से बंधे रहे और यह सम्मोहन नाटक खत्म होने के बाद भी भंग नहीं हुआ।

सनकी बाबा (हिमांशु तलरेजा), नाम्या (राकेश कुमार), सावित्री (रविजा चौहान) और कथावाचक (रोहन सचदेव)- इन सबने परसाई की कल्पना को रंगमंच पर उतारा। वर्तमान व्यवस्था के सभी प्रतीक नाटक में विद्ममान हैं। गांधीवाद से लेकर बाबावाद तक। अन्ना टोपी से लेकर केजरी टोपी तक। रामदेव के योगासन से लेकर साधिवयों के भोगासन व छल-कपट तक। आंदोलन, आमरण अनशन और आत्मदाह की धमकियां तक। ये सब मिलकर एक विराट परिदृश्य की रचना करते हैं।

लेखक और निर्देशक जब एक दृष्टि और एक सौद्देश्यता के साथ मंचित होते हैं, तो रंगमंच पर किस तरह का निखार आता है, 'लड़ी नजरिया' इसका प्रमाण है। तब रंगदर्शक भी निरपेक्ष व तटस्थ नहीं रहते। दर्शक दीर्घा भी रंगमंच का हिस्सा बन जाती है और तब दर्शकों की संवेदनायें भी जागृत हो जाती हैं और पात्रों के सुख-दुख का वे भी हिस्सा बन जाते हैं। रंगमंच तभी सफल कहलाता है और 'लड़ी नजरिया' की सफलता भी इसी से जुड़ी है।

अगली संध्या पर दो प्रस्तुतियां हुईं। पहली प्रस्तुति रायपुर इप्टा की थी- के पी सक्सेना लिखित और रवीन्द्र गोयल निर्देशित 'गज फुट इंच'- एक साफ-सुथरा और हल्का-फुल्का व्यंग्य। जीवन में ऐसे हास्य की भी बहुत जरूरत है, जो रंग दर्शकों के कमजोर होते फेफड़ों में हवा भरने का काम करे। इस काम को अंशुदास (जुगनी), राजा पांडे (टिल्लू), प्रिया शर्मा (गुल्लू), मुस्कान (टिल्लू की मां) और रवीन्द्र गोयल (पोखरमल) ने बखूबी निभाया।

दसरी प्रस्तुति थी- भिलाई इप्टा की 'रामलीला'- अशफाक खान के निर्देशन में एक उददेश्यपूर्ण नाटक। अपने आर्थिक हितों को साधने के लिए इस देश की सांप्रदायिक ताकतों द्वारा किये जा रहे नंगे नाच का खुलासा। इस नाटक को बाबरी मसिज़द के विध्वंस के पहले लिखा गया था। संघी गिरोह तब इस विवाद को गरमा ही रहा था और राम के बहाने अयोध्या और पूरे देश की शांति भंग की जा रही थी। इस देश की हिंदू सांप्रदायिक ताकतें एक ऐसी 'लीला खेलने की तैयारी कर रही थी, जिसमें रावण का नहीं, इस देश की सौहाद्र्रपूर्ण सांस्कृतिक परंपराओं का दहन होना था। 'रामलीला' के मैदान को 'महाभारत' के युद्ध क्षेत्र में बदलने का षड़यंत्र रचा जा रहा था- जिसके बाद केवल तबाही मचनी थी, बसितयां उजड़नी थीं, मरघट का सन्नाटा और घृणा नफरत की दीवारें खड़ी होनी थीं। ये ताकतें सफल भी हुर्इं- 'रामलीला भंग हुई, एक लंबे रक्तरंजित 'महाभारत के बाद राम को पलायन करना पड़ा और रावण मुस्कुराता रहा। दस साल बाद यही 'महाभारत फिर गुजरात में रचा गया और मोदी सत्तासीन हुये। मोदी के भाजपाई राज में मानव विकास सूचकांक भले ढह गये हो, इन ताकतों का आर्थिक साम्राज्य आज भी जगमगा रहा है। कलिकाप्रसाद और अली बहादुर इसी साम्राज्य के प्रतिनिधि हैं, जो असल खेल तो जमीन हड़पने का खेल रहे हैं, लेकिन निशाने पर वह 'रामलीला है, जो मुसिलमों की भागीदारी के बिना पूरी नहीं होती, जो हिंदू-मुसिलमों के सहयोग से एक समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा के रुप में विकसित हुर्इ है। शोषण की व्यवस्था को बनाये रखने वाली ताकतों को यही संशिलष्टता रास नहीं आती। उन्हें पाषाण युग के हथियार अच्छे लगते हैं।

इस नाटय समारोह का अंत हुआ मोहन राकेश के 'आधे-अधूरे' के मंचन से। जबलपुर की 'विवेचना' गंभीर रंगकर्म के लिए जानी जाती है। न केवल नाटकों के चयन के हिसाब से,बलिक प्रस्तुति के लिहाज से भी। नाटककार की कल्पना को रंगमंच पर उतारना किसी भी निर्देशक के लिए आसान नहीं होता और मोहन राकेश तो निर्देशकों के लिए हमेशा चुनौती ही रहे हैं। चुनौती की इस कसौटी पर अपने निर्देशन व अभिनय दोनों में विवेक पांडे व प्रगति पांडे खरे उतरे। मोहन राकेश अपने नाटकों को एक नयी रंगभाषा में प्रस्तुत करते हैं। यह रंगभाषा जीवन की त्रासदी और नाटकीय विडंबनाओं को गति देती है और इससे रंग विस्तार की व्यापक संभावनायें पैदा होती हैं। इन संभावनाओं का पूरा उपयोग 'विवेचना ने अपनी रंग प्रस्तुति में किया है। विवेक पांडे ने महेन्द्रनाथ व जुनेजा सहित सभी पुरुष पात्रों को मंच पर एक साथ जिया है और कहीं एकरसता नहीं दिखी।

मोहन राकेश का 'आधे-अधूरे सातवें दशक का नाटक है। आधुनिक भारत के इतिहास में सातवां दशक बहुत उथल-पुथल भरा था- न केवल राजनैतिक रुप से, बलिक अर्थव्यवस्था के लिहाज से भी। फिर परिवार और समाज ही इससे कैसे अछूता रहता? मोहन राकेश ने अपने सांस्कृतिक सरोकारों को समाज और परिवार से जोड़ा। नाटय आंदोलन के क्षेत्र में यह एक नई सृजनात्मक रंग-चेतना थी। सत्तर के दशक की तुलना में आज यह सामाजिक तनाव और ज्यादा गहरा हो गया है और इसीलिए आज भी यह नाटक बहुत प्रासंगिक है। 'आधे-अधूरे की नायिका सावित्री (प्रगति पांडे) अपने अधूरेपन को मानने को तैयार नहीं है। वह महेन्द्रनाथ में पूर्णता की खोज करती है और जीवन में निराशा और ऊब उसके पल्ले पड़ती है। यह मध्यवर्गीय जीवन की त्रासदी है कि पूर्णता की खोज से ऐसे नये तनावों का जन्म होता है, जिससे बचा जा सकता है और संकटग्रस्त जीवन में भी थोड़ा सुख खोजा जा सकता है। लेकिन पूर्णता की मांग पूरे जीवन को नष्ट कर देती है। लेकिन यह सवाल फिर भी अपनी जगह है कि जिस चरम पर जाकर मोहन राकेश ने नाटक का अंत (महेन्द्रनाथ का लौटकर आना) किया है, वह भारतीय समाज क निराशावाद है या नियतिवाद? या फिर इस पूरी त्रासदी का हल कहीं और है? दुर्भाग्य की बात है कि भारतीय समाज के तनावों को मंचित करने वाले नाटक अब नहीं के बराबर आ रहे हैं। यह सामाजिक रंगकर्म कार्पोरेटी सीरियलों में कहीं गुम सा हो गया है।

समारोह में इन पूर्ण नाटय प्रस्तुतियों के अलावा नेशनल एसोसिएशन फार ब्लाइंडस 'प्रेरणा की नेत्रहीन छात्राओं ने लोकगीत तो प्रस्तुत किये ही, भीष्म साहनी कृत और निसार अली निर्देशित 'चीफ की दावत का भी मंचन किया। इप्टा रायपुर ने नुक्कड़ नाटक 'सरकार का निजीकरण का मंचन किया। दीपक और पूनम की टीम ने दिवंगत हबीब तनवीर के नाटक के गीतों को प्रस्तुत किया। गोविंदराम निर्मलकर ने नाटय समारोह का उद्घाटन किया। उन्होंने छत्तीसगढ़ के 'नाचा जैसी लोकप्रिय विधा के प्रति सरकारी उदासीनता पर नाराजगी और चिंता जाहिर की। 'रंगकर्म के सरोकार' विषय पर हई गोष्ठी में प्रसार वानारसे व डा. रानी बलबीर कौर ने विचारोत्तेजक वक्तव्य रखा।

कुल मिलाकर इस समारोह ने रायपुर के रंगकर्म की जीवंतता को पुन: रेखांकित किया। छत्तीसगढ़ के संस्कृति विभाग ने जिस नाट्य कर्म को दोयम दर्जे पर रख दिया है, ऐसे में इप्टा का यह समारोह संस्कृति विभाग को उसका असली चेहरा तो दिखाता ही है।

गीत-संगीत : कंपनी के दौर की एक रचना

 "बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए" एक कालजयी रचना है, जिसे आप -हरेक बार नयी ताजगी के साथ - कभी भी सुन सकते हैं । इस ठुमरी की रचना अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह ने की थी जो 1847 से 1856 तक  लखनऊ के नवाब रहे थे । 1856 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उन पर कुशासन का आरोप लगाकर अवध की सत्ता अपने हाथ में ले ली थी । जब नवाब वाजिद अली शाह लखनऊ से निर्वासित होकर बंगाल जा रहे थे उस समय उन्होनें इस ठुमरी की रचना की थी ।




बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए

चार कहार मिल मोरी डोलिया सजावें
मोरा अपना बेगाना छूटो जाए ...

आँगना तो पर्बत भयो और देहरी भयी बिदेस
ले बाबुल घर आपनो मैं चली पिया के देस..


कुंदन लाल सहगल से लेकर जगजीत-चित्रा व पंडित भीमसेन जोशी तक अनेक गायकों ने इस पारंपरिक रचना को अपना स्वर दिया है। इस अंक में सुनें यह रचना :

कुंदन लाल सहगल


भीमसेन जोशी


गिरिजा देवी


जगजीत-चित्रा

कथा-कहानी : ईस्ट इंडिया कंपनी

कहानीकार पंकज सुबीर के पहले कहानी-संग्रह 'ईस्ट इंडिया कम्पनी' की शीर्षक कहानी। यह कहानी संग्रह विगत 14 मार्च 2009 को दिल्ली के हिन्दी भवन सभागार में विमोचित हुआ। पंकज सुबीर के इस कहानी-संग्रह को भारतीय ज्ञानपीठ ने अनुशंसा के साथ प्रकाशित किया है। निर्णायक मंडली में स्वमान्य धन्य आलोचक डॉ॰ नामवर सिंह भी थे, जिन्हें इस कहानी का शीर्षक इतना पसंद आया कि निर्णय प्रक्रिया के दौरान उन्होंने इस कहानी को पूरा सुना। आप भी पढ़िए॰॰॰॰

वे कुल जमा नौ थे,इसमें अगर दो बच्चों को भी जोड़ दिया जाए तो कुल संख्या ग्यारह हो जाती है। हालांकि वैसे तो पूरा रेल का सामान्य श्रेणी का डब्बा यात्रियों से ठसाठस भरा था, लेकिन उसके हिस्से में वे कुल ग्यारह थे, एक तरफ बैठे हुए पाँच और दूसरी तरफ चार एवं साथ में दो बच्चे। इन ग्यारह में उसे अपनी मनपसंद खिड़की के पास की जगह मिल गई थी, एक बार उसे रेल में खिड़की के पास स्थान मिल जाए तो फिर उसे डब्बे के अंदर की दुनिया से कोई सरोकार नहीं रहता, उसका मन बाहर तेजी से दौड़ रहे खेतों खलिहानों, नदी, तालाबों, बिजली टेलिफोन के खंभों, और पर्वत मालाओं के साथ दौड़ने लगता है और साथ में ताल मिलाने लगती है रेल की पटरियों पर थाप दे रही पहियों की आवाज ''सटक सटक -पटक पटक-पटक पटक'' ,''सटक सटक-पटक पटक-पटक पटक .........।''

 आज उसे पहले पहल तो खिड़की के पास स्थान नहीं मिला था, लेकिन अचानक ही खिड़की के पास बैठे भद्र महाशय से टीसी की कुछ चर्चा हुई और वे अपना सामान उठाकर टीसी के साथ चले गए, वैसे भी वे तथा उनका लकदक कर रहा सामान दोनों ही सामान्य श्रेणी के डब्बे में कुछ असहज लग रहे थे। कदाचित उच्च श्रेणी में आरक्षण न मिल पाने के कारण वे यहां बैठ गए थे, गरीब लोगों के भारत से अवसर मिलते ही वे अपने वाले अमीर लोगों के भारत में चले गए, अपने हिस्से की खिड़की एक गरीब को देकर। उनके वहां से हटते ही उसने बिजली की फुर्ती से खिड़की के पास कब्जा कर लिया, खिड़की के पास बैठते ही उसे लगा कि अब यात्रा कितनी ही लंबी हो जाए कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला, क्योंकि खिड़कियों के उस पार के एक पूरे संसार के साथ अब वो जुड़ गया है, यात्रा की यायावरता अब पूरी पकृति के साथ जुड़कर गतिमान होगी।

तो वे कुल जमा ग्यारह थे कुछ घंटों के लिए मजबूरीवश बना एक सर्वथा अपरिचित लोगों का समाज, इस समाज में न कोई किसी के भूत के बारे में जानता है, न भविष्य के, केवल वर्तमान के कुछ घंटों को काटने के लिए ये समाज बना है। खिड़की के पास आसन जमाने के काफी देर बाद वो डब्बे के अंदर आया, यहां आने से मतलब मानसिक रूप से अंदर आना है। बाहर की प्रकृति को छोड़ वो अंदर आया, तब उसे ये दस लोग दिखाई दिये, जो उसके समेत कुल ग्यारह थे और उपर वर्णित समाज की रचना कर रहे थे।

सामने की सीट पर कोने में छोटा परिवार सुखी परिवार विराजमान था, अत्यंत युवा ग्रामीण पति पत्नी और उनकी दो छोटी छोटी बेटियां, ये बेटियां इस बात का प्रमाण थीं कि यह परिवार अधिक दिनों तक छोटा परिवार सुखी परिवार नहीं रहेगा। अगर दो बेटे होते तब शायद यह रह लेता, परंतु पति पत्नी की अत्याधिक युवावस्था और दो बेटियां, छोटा परिवार सुखी परिवार के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगा रही थीं। इन चार के बाद सीट पर एक महिला अपनी युवा बेटी को लेकर बैठी थी, लड़की क्योंकि युवा थी, इसलिए जाहिर है खिड़की के समीप बैठी थी उसके ठीक सामने। मां बेटी दोनों ही खाते पीते घर की होने की बात को अपनी चर्बी के द्वारा सिद्ध करने का पूर्ण प्रयास कर रही थी। यह था उसका विपक्षी दल का बेन्च अर्थात उसके ठीक सामने की सीट पर विराजमान उसके हिस्से का आधा समाज।

अब उसने अपने पक्ष में बैठे लोगों पर नजर डाली इस अवलोकन के दौरान उसे लगा कि विपक्ष की ओर नजर डालना बहुत आसान है, आंखें उठाओ और देख लो, लेकिन अपने पक्ष को देखने के लिए बाकायदा प्रयास करना पड़ता है,बात वही सप्रयास और अप्रयास वाली है। अपनी बेंच के लोगों में स्वंय को छोड़कर उसने बाकी लोगों को देखा, विपक्ष की और जब उसने देखा था तो कहीं कोई भी प्रतिक्रिया नहीं हुई थी, किंतु जब गरदन घुमा कर कुछ झुककर उसने अपने पक्ष में बैठे लोगों को देखा तो उन लोगों में विशेषकर महिलाओं में प्रतिक्रिया उनकी आंखों में साफ दिखाई दी, कुछ इस प्रकार की ,कि देखो कैसे घूर रहा है।

खैर इस देखने दिखाने की प्रक्रिया में जो कुछ नजर आया वो इस प्रकार था उसके ठीक पास दो महिलाऐं बैठी थीं, और उनके पास फिर एक महिला थी और फिर एक पुरूष बैठा था। अब इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि तीन महिलाएं और एक पुरूष बैठा था, लेकिन ऐसा इसलिए नहीं कहा जा रहा क्योंकि दो महिलाएँ एक साथ थीं और तीसरी महिला और चौथा पुरूष एक साथ, जैसा उनके वार्तालाप से पता चल रहा था। उसके ठीक पास की दो महिलाएँ पारंपरिक भारतीय महिलाऐं थीं, जो संभवत: निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से संबंधित थीं, पारंपरिक इसलिए क्योंकि उनकी बातचीत में पात्र भले ही रह रह कर बदल रहे थे लेकिन विषय एक ही था ''निंदा'', और यह निंदा पूरी शिद्दत के साथ और पूरी ईमानदारी के साथ की जा रही थी, हालांकि कभी कभी यह निंदा निहायत कानाफूसी वाले स्तर पर पहुंच जाती थी, शायद उन महिलाओं का यह मानना था कि भले रेल के डब्बे की दीवारें हों या घर की दीवारें, दीवारें तो दीवारें हैं, और उनके कान होते ही हैं।
इन दो महिलाओं के उस तरफ जो पुरूष और महिला थे वे वास्तव में दो वृद्ध थे, एक सरदार जी और उनकी पत्नी, सरदार जी पूर्ण पारंपरिक वेशभूषा में थे और ऊपर एक कृपाण भी लटकाए हुए थे। पत्नी उनसे कुछ अधिक वृद्ध थी या फिर बीमार थी, ऐसा इसलिए क्योंकि सरदार जी थोड़ी थोड़ी देर बाद स्वयं उठकर नीचे फर्श पर बैठ जाते थे, और उन दो लोगों वाले स्थान पर उनकी पत्नी अधलेटी हो जाती थी। ऐसा रह रहकर हो रहा था ।
पूर्ण सिंहावलोकन करने के पश्चात उसने पुन: सामने नजर डाली तो उसके ठीक सामने बैठी लड़की उससे नजर मिलते ही बिला वजह ही शर्मा गई। कुछ लड़कियों के साथ यही समस्या होती है, एक ठीक ठाक सा पुरूष जो थोड़ी दूर से देखने पर युवक होने का भ्रम उत्पन्न करता हो, उसकी उपस्थिति मात्र से ही इन्हें कुछ कुछ होने लगता है। स्थिति यह हो गई कि कुछ ही देर में उसे ''कनखियों से देखना'', ''दुपट्टा मुंह में दबाना'', ''पैर के अंगूठे से जमीन कुरेद कर लजाना'' जैसी घोर दुर्लभ घटनाओं का प्रत्यक्ष अवलोकन करने का सौभाग्य मिल गया। यद्यपि ट्रेन के उस घोर मरूस्थली फर्श पर कुरेदने जैसा कुछ नहीं था, फिर भी महिलाऐं परंपराओं का पालन करने में अधिक विश्वास करती हैं, अब परंपरा पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदने की है तो कुरेदना है।
उधर कोने का छोटा परिवार सुखी परिवार अपने आचरण से स्पष्ट कर रहा था कि अब यह छोटा परिवार यात्रा समाप्त होने के कुछ समय पश्चात ही छोटे परिवार का दायरा तोड़ देगा। यद्यपि दो बच्चियों के कारण दोनों खासे परेशान नजर आ रहे थे।

तो इस तरह दोदो के चार समूहों में ग्यारह सदस्यीय दल चर्चारत था, और इन सबके बीच एक बिला वजह की चर्चा उसके और सामने वाली लड़की के बीच भी हो रही थी, हालांकि यह चर्चा निगाहों से होने वाली चर्चा थी और पूर्णत: एकतरफा थी। और इसी एकतरफा चर्चा के कारण वो पुन: खिड़की से बाहर निकल गया और एक बार फिर नदी ,तालाब ,पेड़ ,पहाड़ों के साथ दौड़ने लगा। अच्छा होता है खिड़की के पास बैठना क्योंकि खिड़की के पास बैठने वाले को यही एक बड़ी सुविधा होती है, अगर डिब्बे या बस के अंदर का माहौल किसी व्यक्ति विशेष अथवा घटना विशेष के कारण रूकने योग्य न हो रहा हो, तो शारिरिक रूप से अंदर उपस्थित रहकर मानसिक रूप से बाहर निकला जा सकता है जो वो अभी कर रहा है।

काफी देर तक वो खिड़की के बाहर दौड़ता रहा तब तक जब तक बाहर अंधेरे ने नदी पर्वत तालाबों को लील नहीं लिया और बाहर दौड़ना उसके लिये पूर्णत: असहज नहीं हो गया। घना अंधकार बाहर फैला और वो अंदर लौट आया, अंदर आकर उसे पहली तसल्ली यह मिली कि उसका मूक साथी अपनी मां के कंधे पर सिर टिकाए सोने या संभवत: ऊँघने की स्थिति में आ चुका था, बाकी सब कुछ पूर्ववत था, हाँ एक लगभग अधेड़ उम्र के स्त्री पुरूष जो केवल इसलिए पति पत्नी कहे जा सकते थे क्योंकि ट्रेन भारत में थी, वे दोनों जहां दोनो सीटें खत्म होती हैं ठीक उस स्थान पर आकर खड़े हो गए थे। पति पूर्णत: पारंपरिक भारतीय अधेड़ था ,जिसके सर के बाल विलुप्त हो गए थे और पेट तोंद नामक निर्जीव वस्तु में परिवर्तित हो चुका था। पत्नी उससे भी ज्यादा भारतीय नजर आ रही थी।

पति की आंखों में कुछ पा लेने के लिए आतुरता नजर आ रही थी। उसने देखा कोने वाले सरदारजी की पत्नी फिलहाल लेटी हुई है, और सरदार जी सीट से नीचे बैठे ऊँघने वाली मुद्रा में नजर आ रहे थे। नवागत खड़े खड़ाए दंपति की निगाहें अधलेटी सरदारनी के द्वारा घेरे गए स्थान पर टिकी हुई थी, अगर सरदारजी पास नहीं बैठे होते तो निश्चत रूप से वे अभी तक सरदारनी को उठा चुके होते। रात काफी हो चुकी थी लेकिन पब्लिक डब्बे में क्या रात और क्या दिन, क्योंकि बैठे बैठे ऊँघना ही था, और वो भी लोहे की सख्त सीटों पर। उसे केवल एक बात का डर था कि उसके ठीक सामने की ऊँघ टूट न जाए, नहीं तो फिर उसे कुरेदना लजाना झेलना पड़ेगा,क्योंकि अंधेरे मे खिड़की से बाहर भी तो नहीं जा सकता।

सरदारनी अचानक कुछ कराही और उठ कर बैठ गई, सरदाजी को इस बात का पता नहीं चल पाया कि सरदारनी उठ कर बैठ गई है वे पूर्ववत ऊँघते रहे, सरदारनी को शायद कम दिखता है वह उठकर चुपचाप बैठ गई बस एक बार दुपट्टे को संभाल कर सर ढंक लिया। सरदारनी के उठते ही खड़े पति पत्नी के बीच कुछ ऐसा हुआ जिसे फिल्मी भाषा में आंखो ही आंखों में इशारा हो गया कहा जा सकता है। इस बात को केवल उसी ने देखा कि खड़े पति ने भोंहों को ऊपर उचका कर गर्दन को सामने खींच कर सरदारनी के बैठ जाने से बने रिक्त स्थान की और इशारा किया, और जवाब मे खड़ी पत्नी ने गिरगिट की तरह तीन बार स्वीकृति मे सिर हिलाकर पति के हाथों से बैग ले लिया यह पूरा घटनाक्रम उसके लिए दिलचस्प हो गया था, उसे अब डिब्बे के अंदर भी मज़ा आ रहा था।

हाथों मे बैग लेकर खड़ी पत्नी कुछ देर तक खड़ी रही, फिर बिल्ली की तरह दबे पांव उस रिक्त स्थान की और बढ़ी, दबे पांव बढ़ने का कारण शायद यही था कि सरदारजी की नींद न खुल जाए क्योंकि उस स्थिति में सरदारजी उस स्थान के पहले हकदार होने के कारण बैठ जाते। लेकिन खड़ी पत्नी का साथ आज किस्मत दे रही थी, वह अपना बैग और लगभग बैग सा ही ठसा ठसाया शरीर लेकर उस रिक्त स्थान पर बैठ गई, अर्थात अब उसे बैठी पत्नी कहा जा सकता था। खड़ी पत्नी के बैठते ही उसकी सीट पर हल्की सी हलचल हुई, यह हलचल सरदारनी की तरफ से नहीं हुई क्योंकि उन्हें तो कुछ सूझ ही नहीं रहा था, यह हलचल उसके ठीक पास बैठी दोनों पारंपरिक महिलाओं की और से हुई।

ये दोनों महिलाऐं अभी भी ऊँघ-ऊँघ कर निंदा में लगी हुई थीं रात हो जाने के कारण निंदा के विषय भी नींद या रात से संबंधित हो गए थे, मसलन फलानी को नौ बजे से ही नींद आने लगती है या फलानी सुबह के आठ बजे तक सोती रहती है। इन्ही दोनों महिलाओं का यह निंदा का पारंपरिक कार्य तीसरी महिला अर्थात खड़ी पत्नी के ठीक पास आकर बैठते ही कुछ देर के लिए रुक गया। निंदा की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि प्रेम गली अति सांकरी जामे तीन महिला न समाए, जो कनफुसियाना, फुसफुसियाना दो महिलाओं के बीच मजा देता है,वह मजा तीन में कहाँ? यही कारण था शायद कि दोनों महिलाओं के बीच का वार्तालाप खड़ी पत्नी के बैठी पत्नी मे बदलते ही थम गया ,और दोनों कनखियों से बैठी पत्नी की और देख रही थीं।

इसी बीच सरदार जी की ऊँघ अवस्था समाप्त हो गई, उन्होंने उठकर जैसे ही अपने स्थान पर उक्त महिला को बैठे देखा तो तुरंत बोले ''औ भैणजी इत्थे तो मैं बैठा था'' महिला ने तुरंत अपने पति की और देखा, अधेड़ पति ने तुरंत सरदारजी को जवाब दिया ''सरदारजी महिला हैं कब तक खड़ी रहतीं, आप तो अच्छे बैठे ही हो नीचे।'' सरदारजी वयोवृध्द होने के साथ विनम्र भी थे, और फिर महिला के बैठने पर आपत्ति कैसे दर्ज कराते। कुछ नहीं बोले मुड़कर सरदारनी से कुछ पूछने लगे, खड़ा पति और बैठी पत्नी दोनों मुस्कुरा रहे थे। उसने विरोध दर्ज कराना चाहा फिर सोचा जाने दो अपना क्या गया जगह तो सरदारजी की गई।

कुछ देर तक उसने खिड़की के बाहर अंधेरे में आंखे फाड़कर देखने का प्रयास किया लेकिन बाहर कुछ सूझ ही नहीं रहा था । वह पुन: अंदर आ गया उसके ठीक सामने अभी भी ऊँघ का माहौल था वह भी ऊँघने लगा। काफी देर तक वह ऊँघता रहा उसकी इस निर्विघ्न ऊँघ के पीछे कई कारण थे जैसे कि उसके ठीक सामने कि निगाह चर्चाओं का ऊँघ जाना, छोटा परिवार सुखी परिवार की पारिवारिक चेष्टाओं का थम जाना और ठीक पास के निंदा पुराण का भी ऊँघ जाना। काफी देर बाद जब उसकी आंखें थोड़ी खुलीं तो उसने देखा कि सारे सहयात्री ऊँघ वाली अवस्था से निंद्रा वाली अवस्था में प्रवेश कर चुके हैं, उसके समेत केवल पांच लोग ही जाग रहे हैं, सरदारजी, सरदारनी, बैठी पत्नी और खड़ा पति। बैठी पत्नी अपने खड़े पति की चिंता में जाग रही थी और सरदारजी, सरदारनी के कारण जाग रहे थे, अर्थात् भारतीय दांम्पत्य जीवन का अनूठा उदाहरण दोनों युगल बने हुए थे।

सरदारनी को बैठे रहने में परेशानी हो रही थी शायद इसीलिये वे बार बार पहलू बदल रही थीं । पहले वो थोड़ी-थोड़ी देर बाद अधलेटी हो जाती थीं लेकिन खड़ी महिला के बैठी होने के बाद अधलेटे होने की जगह समाप्त हो गई थी। पत्नी को परेशान देख सरदारजी ने धीरे से पूछा ''की हुआ वीरांवालिए लेटना है? '' सरदारनी को कुछ समझ नहीं पड़ा वो चुपचाप बैठी रही। सरदारजी सरदारनी की पीड़ा समझ कर भी चुप रहे। इसी बीच उसने देखा कि बैठी पत्नी और खड़े पति के बीच पुन: कुछ आंखो ही आंखो में इशारा टाइप की चीज़ हुई। जिसके होने के बाद बैठी पत्नी के मुख पर कुछ इंच लंबी मुस्कुराहट फैल गई।

बैठी पत्नी ने आवाज में विनम्रता घोलते हुए सरदारजी से पूछा ''क्या बात है भाई साहब भाभी जी से बैठते नहीं बन रहा है क्या?'' सरदारजी ने सोचा शायद ऐसा सीट खाली करने के उद्देश्य से पूछा जा रहा है, इसलिए तुरंत जवाब दिया ''हां भैणजी तबीयत खराब है, ज्यादा देर बैठ नहीं पाती।'' बैठी पत्नी ने कहा ''अब तो सब सो ही गए हैं मेरे पास एक मोटी दरी है, आप उसे दोनो सीटों के बीच बिछा कर इनको वहां लिटा दो, यहां इन्हें परेशानी हो रही है।'' इतना कहकर वो अपने खड़े पति की और मुख़ातिब होते हुए बोली ''सुनिये आप ही थोड़ी जगह बनाकर ये दरी बिछा दीजिये, भाईसाहब बिचारे अकेले हैं'' स्वयं ही सलाह देकर उसकी स्वीकृति भी स्वयं देकर उसने बेग से दरी निकालकर पति की और बढ़ा दी, पति ने आज्ञाकारी बच्चे की तरह दरी हाथ में ली और दोनों सीटों के बीच रखे सामान को सीटों के नीचे सरकाते हुए दरी को बिछा दिया।

दरी बिछते ही बैठी पत्नी ने तुरंत सरदारजी का बैग लेकर उसे दरी के एक सिरे पर तकिये की तरह रख दिया और सरदारजी से बोली ''लीजिए भाईसाहब भाभीजी को यहां लिटा दीजीए यहां उन्हें आराम मिल जाएगा'' सरदारजी ने उठ कर सरदारनी का हाथ पकड़ कर उठा लिया, और नीचे बिछी दरी पर लिटाने लगे, इन सब में खड़ा पति भी सहयोग प्रदान कर रहा था। सरदारनी के लेटते ही खड़ा पति भी तुरंत सरदारनी के उठने से रिक्त हुए रिक्त स्थान पर बैठकर बैठा पति हो गया, सरदारजी ने उसे बैठते हुए देखा लेकिन कुछ न बोले बोलते भी कैसे, उन लोगों की दरी पर ही तो सरदारनी को लिटाया है। सरदारजी ने सरदारनी के पैरों के पास थोड़ी जगह बनाई और वहीं नीचे बैठ गये,बैठी पत्नी ने सरदारजी से कहा ''यहां भाभीजी आराम से सुबह तक सो सकेंगी।'' उत्तर में सरदारजी ने विनम्रता से केवल सर हिला दिया।

रात काफी बीत चुकी थी ट्रेन पूरी रफ्तार से भाग रही थी ,उसे याद आया बचपन में इतिहास के शिक्षक बार बार उसे समझाते थे कि किस तरह ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में आई, फिर धीरे धीरे भारत में फैली और अंतत: पूरे भारत पर कब्जा कर लिया, तब उसे समझ नहीं आता था कि ऐसा कैसे हो सकता है, इतिहास का वो सबक आज जाकर उसे समझ में आया कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने किस तरह भारत पर कब्जा किया होगा ? उसने बैठी पत्नी और ताजा ताजा बैठे पति की और देखा उसे लगा वे दोनो यूनियन जैक में बदल गए हैं वह धीरे से मुस्कुराया और आंखें बंद कर ऊँघने लगा। बाकी यात्रियों के साथ अब बैठा पति तथा बैठी पत्नी और सरदारजी एवं सरदारनी भी ऊँघने से निंद्रा की और बढ़ रहे थे क्योंकी अब सभी संतुष्ट हो गए थे। यूनियन जैक सीट पर लहरा रहा था, और भारत नीचे दरी पर सो रहा था वह भी धीरे धीरे सो गया।



पोस्टर -कविता : कंपनी की तोप

- वीरेन डंगवाल

प्रतीक और धरोहर दो किस्म की हुआ करती हैं। एक वे जिन्हें देखकर या जिनके बारे में जानकर हमें अपने देश और समाज की प्राचीन उपलब्धियों का भान होता है और दूसरी वे जो हमें बताती हैं कि हमारे पूर्वजों से कब, क्या चूक हुई थी , जिसके परिणामस्वरूप देश की कई पीढ़ियों को दारूण दुख और दमन झेलना पड़ा था। तोप कविता में ऐसे ही दो प्रतीकों का चित्रण है। पाठ हमें याद दिलाता है कि कभी ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में व्यापार करने के इरादे से आई थी। भारत ने इसका स्वागत किया , लेकिन बाद में वह हमारी शासक बन बैठी। उसने कुछ बाग बनवाए तो कुछ तोपें भी तैयार कीं। उन तोपों ने इस देश को आजाद करने निकले जाँबाजों को मौत के घाट उतार दिया। पर एक दिन ऐसा भी आया जब हमारे पूर्वजों ने अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंका। तोप को निस्तेज कर दिया। हमें इन प्रतीकों के माध्यम से यह याद रखना होगा कि भविष्य में कोई और ऐसी कंपनी यहाँ पाँव न जमाने पाए जिसके इरादे नेक न हों। भले ही अंत में उनकी तोप भी उसी काम क्यों न आए जिस काम में इस पाठ की तोप आ रही है……..


































कंपनी बाग के मुहाने पर धर रखी गई है यह 1857 की तोप
इसकी होती है बड़ी सम्हाल , विरासत में मिले
कंपनी बाग की तरह

साल में चमकाई जाती है दो बार
सुबह शाम कंपनी बाग में आते हैं बहुत से सैलानी
उन्हें बताती है यह तोप
कि मैं बड़ी ज़बर
उड़ा दिए थे मैंने
अच्छे-अच्छे सूरमाओं के धज्जे
अपने ज़माने में

अब तो बहरहालछोटे लड़कों की घुड़सवारी से
अगर यह फ़ारिग हो
तो उसके ऊपर बैठकर
चिड़ियाँ ही अक्सर करती हैं गपशप
कभी – कभी शैतानी में वे
इसके भीतर भी घुस जाती हैं
खास कर गौरेयें

वे बताती हैं कि दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप
एक दिन तो होना ही है उसका मुँह बंद


साभार: hi.shvoong.com

लघुकथा : आम आदमी

नाव चली जा रही थी। 

मझदार में नाविक ने कहा, "नाव में बोझ ज्यादा है, कोई एक आदमी कम हो जाए तो अच्छा, नहीं तो नाव डूब जाएगी।" अब कम हो जाए तो कौन कम हो जाए? कई लोग तो तैरना नहीं जानते थे: जो जानते थे उनके लिए भी पार चले  जाना खेल नहीं था।

नाव में सभी प्रकार के लोग थे-डाक्टर,अफसर,वकील,व्यापारी, उद्योगपति,पुजारी,नेता के अलावा आम आदमी भी। डाक्टर,वकील,व्यापारी ये सभी चाहते थे कि आम आदमी पानी में कूद जाए। वह तैरकर पार जा सकता है, हम नहीं। उन्होंने आम आदमी से कूद जाने को कहा, तो उसने मना कर दिया। बोला, "मैं जब डूबने को हो जाता हूँ तो आप में से कौन मेरी मदद को दौड़ता है, जो मैं आपकी बात मानूँ? "

जब आम आदमी काफी मनाने के बाद भी नहीं माना, तो ये लोग नेता के पास गए, जो इन सबसे अलग एक तरफ बैठा हुआ था। इन्होंने सब-कुछ नेता को सुनाने के बाद कहा, "आम आदमी हमारी बात नहीं मानेगा तो हम उसे पकड़कर नदी में फेंक देंगे।"

नेता ने कहा, "नहीं-नहीं ऐसा करना भूल होगी। आम आदमी के साथ अन्याय होगा। मैं देखता हूँ उसे। मैं भाषण देता हूँ। तुम लोग भी उसके साथ सुनो।"

नेता ने जोशीला भाषण आरम्भ किया जिसमें राष्ट्र,देश, इतिहास,परम्परा की गाथा गाते हुए, देश के लिए बलि चढ़ जाने के आह्वान में हाथ ऊँचा कर कहा, "हम मर मिटेंगे, लेकिन अपनी नैया नहीं डूबने देंगे…नहीं डूबने देंगे…नहीं डूबने देंगे"….!

सुनकर आम आदमी इतना जोश में आया कि वह नदी में कूद पड़ा।

शंकर पुणतांबेकर



और अंत में : राजनीति बड़ी खराब चीज है जी!

-बर्तोल्त ब्रेख्त

सबसे बड़ा मूर्ख वह है, जो राजनीतिक रूप से अज्ञानी है | वह न तो सुनता है, न देखता है और न ही राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होता है | उसे यह पता नहीं कि उसके आटे-दाल का भाव, उसकी दवाइयों का खर्च, घर का किराया, उसके रहन-सहन का खर्च – यह सब कुछ राजनीतिक निर्णय पर निर्भर है| यहाँ तक कि उसे अपनी राजनीतिक अज्ञानता पर गर्व ही होता है और वह सीना तान कर कहता है कि उसे राजनीति से घृणा है | वह मंदबुद्धि यह नहीं जानता कि वह वेश्या, वह अनाथ बच्चा, वह चोर और सबसे घृणित बहुराष्ट्रीय कंपनियों का वह भ्रष्ट अधिकारी भी उसके इसी अराजनीतिक होने का नतीजा हैं |