April 18, 2013

आर-पार : माई डीयर जीजाजी



हिंदुस्तान में कोई परिवार ऐसा नहीं होगा, जहां इस कहावत पर किसी तरह का विवाद हो- ‘सारी खुदाई एक तरफ, जोरु का भाई एक तरफ।’ संकट की इस घड़ी में मैं आपके साथ उस दीवार की तरह खड़ा हूं, जो अंबुजा सीमेंट से बनी है। ऐसी दीवारें हिंदुस्तान में ही बनती हैं जो टूटती नहीं हैं। जीजू, मैं आपके साथ हूं। पीसी आपके साथ खड़े हैं। सारा देश हमारे चहेते चिदंबरम को प्यार से इसी नाम से बुलाता है। लालू अंकल आपके साथ खड़े हैं। है न अजूबा? ऐसा अविस्मरणीय दृश्य हिन्दुस्तान में ही देखने को मिल सकता है। आपने किसी से मदद के लिये गुहार नहीं लगायी। लोग ही दौड़े चले आ रहे हैं, अपने जन्म -जन्मांतर का कर्ज चुकाने के लिये। इसे कहते हैं - बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख।’

जीजू, फेसबुक पर अपना अकाउन्ट बंद कर लेने से पहले अगर आप मुझसे सलाह-मशवरा कर लेते तो यह दिन देखने को नहीं मिलता। सड़क पर चलने वाला एक साधारण आदमी जिसका नाम अरविंद केजरीवाल बताया जा रहा है, को तवज्जो देने की आपको क्या जरूरत थी?  सड़क पर चलने वाले लोगों को मुंह नहीं लगाना चाहिये। जिन लोगों ने जिन्दगी में दौलत देखी ही नहीं, वे लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने की बात करते हैं। मम्मीजी ने मुझे राजनीति का सबसे बड़ा मंत्र दिया है-जब भी कोई मुश्किल सवाल हो चुप लगा जाओ। लोग भूल जायेंगे। पांच साल तक किसी को कुछ याद नहीं रहता। दादी ने इंमरजेंसी लगाई। लोगों ने माफ कर दिया। हिंदुस्तान की भोली-भाली जनता की यही खासियत है। ऐसे बड़े दिलवाले लोग आपको कहां मिलेंगे?

जीजू, आप खामखाह हलाकान हुए जा रहे हैं। इलजाम लगाना एक बात है, इलजाम साबित करना दूसरी बात है। मेरे नाना जवाहरलाल जी दूरदर्शी और स्वप्नद्रष्टा इंसान थे। उन्होंने सिस्टम ही ऐसा खड़ा किया कि हम लोग राज भी करते रहेंगे और हमारे परिवार पर कोई आंच भी नहीं आ सकती। जीजू, आपने इतिहास भले ही न पढ़ा हो, कोई बात नहीं, हिंदुस्तान में आज तक एक भी ताकतवर आदमी को जेल नहीं हुई।


जीजू, आपने कोई गुनाह नहीं किया। 300 करोड़ रुपये तो हिंदुस्तान में कोई भी कमा सकता है। एक दिन में कमा सकता है। एक सौदे में कमा सकता है। बाहर से बहुत पैसा आ रहा है। कोयले में बहुत पैसा है। जमीनें सोने की खान बन गयी हैं। आपसे ज्यादा पैसा तो आइएएस अफसरों के पास है। इनकी तादाद हजारों में है। सैकड़ों राजनेताओं और मंत्रियों के पास पांच हजार करोड़ से ज्यादा का माल है। ताज्जुब तो यह है कि जिनके पास माल है, वे फेसबुक पर नहीं हैं!

बिजनेस आपके खून में है। आपने महज 50 लाख रुपये से शुरूआत की। किसी ने आपसे पूछा कि ये 50 लाख रूपये आपके पास कहां से आये? डी.एल.एफ. वालों ने आपको 300 करोड़ तक पहुंचा दिया। असली आंकड़ा तो सिर्फ आपको ही मालूम होगा। जीजू, सच कहूं तो डी.एल.एफ. वालों ने आप पर कोई एहसान नहीं किया। आपके घर में मेरी बहन के पांव पड़े आर आपकी किस्मत पलट गयी। मेरी बहन की लाइफ स्टाइल में सादगी के अलावा और किसी चीज की गुंजाइश नहीं है, लेकिन आज की महंगाई के जमाने में 300 करोड़ भी कम पड़ सकते हैं। बाजार में भिंडी 80 रुपये किलो हो गयी है।

जीजू, हमारे प्रधानमंत्री ने एक अनोखी बात कह दी। दुनिया के किसी भी मुल्क में प्रधानमंत्री को यह बात नहीं सूझी। पैसे पेड़ पर नहीं उगते। जीजू, आप रीयली स्मार्ट हो। गांधी परिवार के दामाद बनने की काबिलियत रखते हो। आपको कैसे पता चला कि डी एल एफ के घरों में ऐसे पेड़ लगे हैं। इस मुल्क में डी एल एफ से भी बड़े कई घराने हैं। उनके बंगलों के पेड़ तो वटवृक्ष बन गये होंगे।


जीजू, आपको तो पता ही है कि मम्मीजी की तबीयत आजकल ठीक नहीं चल रही है। जीजी का आत्मविश्वास भी उत्तरप्रदेश के चुनावों में हार के बाद डगमगा गया है। लेकिन आप चिन्ता न करें, मम्मी-जीजी ने पूरी पार्टी और सरकार को काम पर लगा दिया है। पीसी-हमारे चहेते मिनिस्टर पूरी ताकत के साथ आपका बचाव कर रहे हैं। लालू अंकल ने तो केजरीवाल पर ‘चरित्र हनन’ करने का आरोप लगा दिया है। वंडरफुल! इंडिया की फर्स्ट फेमिली का दामाद बनने के मजे ही कुछ और हैं।

आप मेरे जीजा हैं, फिर भी ऐसी गुस्ताखी कर रहा हूं। यूं तो मम्मीजी सब संभाल लेंगी, आपको भी कुछ एहतियात बरतने पड़ेंगे। कुछ समय के लिये पब्लिक से दूर रहें। फैशन शो में न जायें, बाइक रेस में न दिखें और टीवी पर अपने मसल्स को दिखाना भी बंद करें। जीजू, आजकल लोग आपसे बेहद चिढ़े हुए हैं। आपने इंडिया को ‘बनाना रिपब्लिक’ जो कह दिया। एक ऐसा देश जहां गुंडाराज कायम है। राज तो मम्मीजी का है। हम ऐसा बोलेंगे तो सड़क पर चलने वाले लोगों को हमला करने का मौका देते रहेंगे। जब तक इंडिया ‘बनाना रिपब्लिक’ रहेगा, हमारा राज रहेगा।

मैं हूं न, आपका साला,
राहुल










मीडिया मंथन : जस्टिस काटजू कहिन


पने बयानों के कारण जस्टिस काटजू सुर्खियों में बने रहते हैं। कभी सजायाफ्ता लोगों की सजामाफी को लेकर तो कभी लोगों को बेवकूफ कहने को लेकर। लेकिन इंडियन एक्सप्रेस में मीडिया को लेकर उनकी टिप्पणी ने मीडिया जगत में बड़ी हलचल मचा दी थी। यहां प्रस्तुत है, उस टिप्पणी के कुछ अंश :

मेरी राय में भारतीय मीडिया को वैसी ही प्रगतिशील भूमिका निभानी चाहिए जैसी भूमिका यूरोप के मीडिया ने संक्रमणकाल में निभाई। ऐसा वह पिछड़ेपन, सामंती विचारों और व्यवहारों ;जातिवाद, सांप्रदायिकता और अंध्विश्वासद्ध पर प्रहार करके और आधुनिक वैज्ञानिक तथा तार्किक विचारों को बढ़ावा देकर कर सकता है। लेकिन क्या मीडिया ऐसा कर रहा है? मैं समझता हूं कि भारतीय मीडिया का और खासतौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक बड़ा हिस्सा जनता के हितों की पूर्ति नहीं कर रहा है। सच्चाई यह है कि इनमें से कुछ तो निश्चय ही जनविरोधी हैं। भारतीय मीडिया में तीन प्रमुख खामियां हैं जिन पर मैं प्रकाश डालना चाहूंगा।

पहली बात तो यह कि मीडिया प्रायः जनता का ध्यान वास्तविक मुद्दों से हटाकर गैर मुद्दों पर ले जाता है।भारत में आज वास्तविक मुद्दों का संबंध् सामाजिक आर्थिक पहलू से है- भीषण गरीबी जिसमें हमारी 80 प्रतिशत जनता गुजर बसर कर रही है, मंहगाई, चिकित्सा सुविध की कमी, शिक्षा और समाज में व्याप्त पिछड़ेपन के व्यवहार मसलन सम्मान के लिए हत्या, जाति उत्पीड़न और धर्मिक कट्टरता। इन मुद्दों पर ध्यान देने की बजाय मीडिया गैर मुद्दों पर ध्यान देता है मसलन फिल्म अभिनेताओं और उनका रहन-सहन, फैशन परेड, पॉप म्युजिक, डिस्को डांस, ज्योतिष, क्रिकेट, रियलिटी शो आदि आदि।

जनता के मनोरंजन प्रदान करने के मीडिया के काम से कोई आपत्ति नहीं हो सकती बशर्ते इसे वह जरूरत से ज्यादा सीमा तक न करे। लेकिन अगर उसके प्रोग्राम का 90 प्रतिशत हिस्सा मनोरंजन से संबंधित है और महज 10 प्रतिशत उपर बताये गये वास्तविक मुद्दों की बात करता है तो कहीं गंभीर किस्म की गड़बड़ी है। इसके अनुपात में कहीं जबर्दस्त असंतुलन है। स्वास्थ्य, शिक्षा, श्रम, कृषि और पर्यावरण के लिए कुल मिलाकर जितना समय दिया जाता है उससे नौ गुना अधिक समय मनोरंजन को दिया जा रहा है। क्या किसी भूखे अथवा बेरोजगार व्यक्ति को मनोरंजन चाहिए या उसे खाना और रोजगार चाहिए?
रोम के सम्राट कहा करते थे- ‘अगर आप जनता को रोटी नहीं दे सकते तो उन्हें सर्कस दिखाओ।’ भारतीय सत्ता संस्थान का ठीक यही नजरिया है जिसे मीडिया का भरपूर समर्थन प्राप्त है। जनता को क्रिकेट में उलझाये रखो ताकि वे अपनी सामाजिक और आर्थिक मुसीबतों को भुलाये रखें।
उदाहरण के लिए मैंने हाल में अपना टीवी खोला और मुझे क्या मिला? लेडी गागा भारत आ गयी है, करीना कपूर अपनी उस मूर्ति के बगल में खड़ी हैं जिसे मदाम तुसाद ने बनाया है, किसी व्यापारिक घराने को पर्यटन पुस्कार दिया जा रहा है, फॉर्मूला वन की रेस चल रही है आदि आदि। जनता की समस्याओं से इन बातों का क्या लेना देना है? अनेक चैनल रात-दिन क्रिकेट दिखाते हैं। रोम के सम्राट कहा करते थे- ‘अगर आप जनता को रोटी नहीं दे सकते तो उन्हें सर्कस दिखाओ।’ भारतीय सत्ता संस्थान का ठीक यही नजरिया है जिसे मीडिया का भरपूर समर्थन प्राप्त है। जनता को क्रिकेट में उलझाये रखो ताकि वे अपनी सामाजिक और आर्थिक मुसीबतों को भुलाये रखें।

गरीबी अथवा बेरोजगारी महत्वपूर्ण नहीं है- महत्वपूर्ण यह है कि क्या भारत ने न्यूजीलैंड को हराया ;अगर पाकिस्तान हो तो और भी अच्छा या क्या तेंदुलेकर अथवा युवराज सिंह की सेंचुरी पूरी हुई? पिछले दिनों ‘दि हिंदू’ ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें बताया गया था कि पिछले 15 वर्षों में ढाई लाख किसानों ने आत्महत्या की। लक्मे फैशन वीक को कवर करने के लिए 512 पत्रकारों ने हिस्सा लिया। उस फैशन वीक में भाग लेने वाली औरतें सूती कपड़े के वस्त्रा पहने थीं जबकि नागपुर से एक घंटे की दूरी पर वे किसान आत्महत्या कर रहे थे जिन्होंने इन कपड़ों के लिए कपास पैदा किया था। एक या दो पत्रकारों को छोड़कर किसी ने इस घटना की रिपोर्टिंग नहीं की।

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एक जमाना था जब राजा राममोहन राय जैसे साहसी व्यक्तियों ने सती प्रथा, बाल विवाह और पर्दा प्रथा के खिलापफ अपने अखबारों मिरातुल अखबार’ तथा ‘संवाद कौमुदी’ में जमकर लिखा। निखिल चक्रवर्ती ने 1943 में बंगाल में पड़े अकाल की भयावहता के बारे में लिखा। मुंशी प्रेमचंद और शरत चंद चट्टोपाध्याय ने सामंती रिवाजों और महिलाओं के उत्पीड़न के खिलाफ लिखा। सआदत हसन मंटो ने विभाजन की भयावहता के खिलाफ लिखा।

लेकिन आज हम मीडिया में क्या देख रहे हैं? अनेक टीवी चैनल ज्योतिष आधरित कार्यक्रमों को दिखाते हैं। ज्योतिष और नक्षत्रा विज्ञान में घालमेल नही किया जाना चाहिए। नक्षत्र विज्ञान एक विज्ञान है जबकि ज्योतिष विज्ञान पूरी तरह अंधविश्वास पर टिका है और बकवास है। अगर थोड़ा भी सामान्य ज्ञान हो तो हम समझ सकते हैं कि तारों और ग्रहों की गतिशीलता में कोई तार्किक संबंध नहीं है और इसके जरिये हम यह नहीं समझ सकते कि कोई व्यक्ति 50 साल की उम्र में मरेगा या 80 साल की उम्र में या कोई व्यक्ति डॉक्टर बनेगा,  इंजीनियर बनेगा या वकील। बेशक हमारे देश में अधिकांश लोग ज्योतिष पर विश्वास करते हैं लेकिन ऐसा वे इसलिए करते हैं क्योंकि उनका मानसिक स्तर बहुत निम्न है। मीडिया को इस मानसिक स्तर को और नीचे ले जाने की बजाय उसे उन्नत करने का प्रयास करना चाहिए। कई चैनल ऐसे हैं जो उन स्थानों को दिखाते हैं जहां कोई हिंदू देवतापैदा हुआ या रहा इत्यादि। क्या यह अंधविश्वास को फैलाना नहीं है?

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मीडिया लोगों को विभाजित करता है। जब भी भारत के किसी भी हिस्से में अगर कोई बम विस्फोट होता है तो कुछ ही घंटों के अंदर टीवी चैनल यह बताने लगते हैं कि उनके पास भारतीय मुजाहिदीन या जैश-ए मुहम्मद या हरकत-उल-जिहाद-ए-इस्लाम की ओर से ई-मेल अथवा एसएमएस मिले हैं जिनमें उन्होंने इन विस्फोटों की जिम्मेदारी ली है। ये नाम हमेशा मुस्लिम नाम होते हैं। अब कोई भी शरारती व्यक्ति जो सांप्रदायिक नफरत फैलाना चाहता हो इस तरह के ई-मेल अथवा एसएमएस भेज सकता है। क्या जरूरत है कि इसे टीवी के स्क्रीन पर दिखाया जाय और अगले दिन अखबारों में छाप दिया जाय। ऐसा करके बहुत बारीकी के साथ यह संदेश पहुंचाया जाता है कि जितने भी मुसलमान हैं वे या तो आतंकवादी हैं या बम फेंकने वाले हैं।

भारत में रहने वाले आज लगभग 92-93 प्रतिशत लोग बाहर से आये लोगों के मूल से हैं। इस प्रकार भारत में जबर्दस्त विविधता हैः अनेक धर्मों जातियों, भाषाओं और जातीय समूहों का अस्तित्व है। इसलिए अगर हम एकजुट और समृद्ध ( होना चाहते हैं तो यह बेहद जरूरी है कि हमारे अंदर सहिष्णुता हो और सभी समुदायों के प्रति समान रूप से सम्मान की भावना हो। जो लोग धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्रा के आधर पर लोगों के बीच फूट के बीज डालना चाहते हैं वे सचमुच जनता के दुश्मन हैं। इसलिए इस तरह के ई-मेल और एसएमएस संदेश भेजने वाले भारत के दुश्मन हैं जो धर्म के आधार पर हमारे बीच फूट पैदा करना चाहते हैं। मीडिया क्यों जाने अनजाने में इस राष्ट्रीय अपराध को बढ़ावा देने में लग जाता है?






पोस्टर कविता : कुत्ते



कुबेर ने निकाला एक अखबार

- दिनेश चौधरी 

यद्यपि विपक्ष के उभरते हुए नेता विश्वमित्र को 'मेनका स्केण्डल' में फंसा देने के बाद इंद्र का आसन काफी सुरक्षित हो चला था, फिर भी अगले आम चुनावों में गद्‌दी बनाये रखने के प्रयोजन से इंद्र ने अपनी छवि बनाने के लिये बड़े घरानों पर छापे डालने शुरू कर दिये। देवराज की यह कार्रवाई धनाढ्‌य व्यवसायी कुबेर के लिये अहितकारी हो सकती थी, अतः काली लक्ष्मी के सदुपयोग के उद्‌देश्य से कुबेर ने अपने निजी सहायक से गहन विचार-विमर्श किया। बहुत सोच-विचार कर निजी सहायक ने कुबेर को एक अखबार के प्रकाशन की सलाह दी और इस संबध में एक नोट-शीट तैयार की। पाठकों की सुविधा के लिये इस नोटशीट को ज्यों का त्यों रखा जा रहा हैः

॥श्री लक्ष्मी जी सदा सहाय॥

अखबार का अभिप्राय

भोजपत्र पर विपुल मात्रा में तैयार किये जाने वाले ऐसे पत्रक, जिनसे नगरवासियों को प्रतिदिन प्रातः सोमरस -पान से पूर्व ही यह सूचना दी जा सके कि कल देर रात्रि तक नगरवासियों की सेवा में देवराज के क्या -क्या क्रियाकलाप रहे। इंद्र की सभा में किस सभासद ने किस सभासद को मर्कट, वानर, शूकर, क्षूद्र अथवा पशु के अलंकरण से अलंकृत किया; कौन सभासद अपने आसन के नीचे प्रवेश कर देव अथवा मानव वाणी से भिन्न एक विशेष प्रकार की बोली व्यवहार में लाने लगा अथवा किस तरह सभापति के आदेश पर एक सभासद को प्रहरियों ने बलपूर्वक सभाकक्ष से बाहर उठाकर फेंक दिया; इनका विवरण। उर्वशी से साक्षात्कार, मेनका द्वारा अंगों को सुडौल बनाये रखने संबंधी परामर्श, अप्सराओं के प्रेम-प्रसंग और विशेषज्ञों द्वारा धूत -क्रीड़ा की समीक्षा के अतिरिक्त पाठकों के मनोरंजन के लिये यह समाचार भी दिया जा सकेगा कि कल किस तरह एक नगरवासी ने एक नगरवासिनी का बलात शील भंग किया अथवा विश्वस्त सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार किस तरह एक कथित आरोपी ने कथित व्यक्ति की कथित रूप से हत्या कर दी। इसके अतिरिक्त देवलोक की सुमुखी कन्याएं नगरवासिनियों को यह संदेश भी दे सकेंगी कि किस सुंगधित चूर्ण के लेप से उनकी त्वचा क्षीर-सी श्वेत व माखन-सी कोमल रहती है अथवा कौन-सा सुंगधित द्रव उनके नभ- से काले घने केशों के मूल में है। बलिष्ठ भुजाओं को प्रदर्शित करते हुए कामदेव यह संदेश भी दे सकेंगे कि पुरूषत्व की वृद्धि के लिये कौन-सी जड़ी-बूटी उपयुक्त होगी। इन संदेशों के एवज में अखबार को स्वर्ण-मुद्राओं की प्राप्ति होगी। भोजपत्र न सिर्फ सूचनाओं के आदान-प्रदान का एक सशक्त माध्यम बन जायेगा अपितु चूर्ण विक्रय के लिये पुडि़या बनाने के कार्य भी आयेगा।

अखबार के कर्मचारी गण

यद्यपि देवी सरस्वती से श्रीमन्‌ का कभी दूर का भी रिश्ता नहीं रहा तथापि प्रधान संपादक के दायित्व का निर्वाह वे स्वयं ही करेंगे। इस दायित्व से श्रीमन्‌ को किंचित भी चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उनका मुख्य कार्य सभाओं, समारोहों का उद्‌घाटन करना, मुख्य अतिथि व अध्यक्ष बनना, लेखकों व बुद्धिजीवियों को संदेश देना तथा इंद्र की राज्य सभा में मनोनयन के लिये अवसर की खोज में लगे रहने का होगा। इन पुनीत कार्यों के लिये काले-कुरूप अक्षरों से संबंध रखना किंचित भी आवश्यक नहीं होगा। संपादन का शेष दायित्व दैनिक मजदूरी पर नियुक्त किये गये संपादक, उप-संपादकों का होगा लेकिन छापा-पंक्ति में श्रीमन्‌ का नाम ही सुशोभित होगा। सरस्वती की कृपा से उप-संपादकों की कलम की धार तीखी बनी रहे इस प्रयोजन से इस बात का विशेष ध्यान रखा जायेगा कि उन पर लक्ष्मी की छाया न पड़ सके। प्रकाशन सामग्री में अंतिम रूप से कांट-छांट का अधिकार श्रीमन्‌ का ही होगा क्योंकि लिखने वाले से छापने वाला बड़ा होता है। श्रीमन्‌ को यह अधिकार भी प्राप्त होगा कि वे उन संदेशों को, जिनके लिये विपुल मात्रा में स्वर्ण-मुद्रायें प्राप्त हुई हों, समाचार के स्वरूप में प्रकाशित कर दें। यह हमारे अखबार की नीति होगी और इस नीति का विरोध करने वाले संपादक को तुरंत प्रभाव से सेवामुक्त माना जायेगा। इनके अतिरिक्त न्यूनतम वेतन पर लिपिक वर्ग की नियुक्ति की जा सकेगी। संवाददाताओं पर किसी तरह का व्यय आवश्यक नहीं होगा। भ्रष्ट दरबारी -गण से उनके मधुर संबंध उनकी आजीविका के लिये सहायक होंगे।

आचार संहिता

अखबार के लिये आचार संहिता का निर्धारण यद्यपि स्वयं श्रीमन्‌ को ही करना है, तथापि आपको परामर्श दिया जाता है कि देवराज इंद्र की स्तुति ही प्रतिष्ठान के हित में होगी। इस कार्य के लिये विशेषज्ञों की सलाह ली जा सकती है व समय-समय पर उन्हें अतिथि संपादक के रूप में आमंत्रित किया जा सकता है। देवराज इंद्र के वक्तव्य प्रमुखता के साथ प्रकाशित होंगे तथा उनके जन संपर्क अधिकारी द्वारा जारी की गयी सूचनायें बिना किसी संपादन के मुख पृष्ठ की शोभा बढ़ायेंगे। नगर के प्रतिष्ठित व्यवसायियों द्वारा सुंदरियों के माध्यम से अपने उत्पाद के संबंध में नागरिकों को दिये जाने वाले संदेशों पर संपूर्ण बल दिया जायेगा। इसके पश्चात भी यदि कुछ स्थान शेष रह जाता है तो साहित्य, कला, नीति, धर्म इत्यादि विषयक सामग्रियों पर विचार किया जा सकता है। इन सामग्रियों का चयन संपादक स्व-विवेक के आधार पर कर सकता है, किन्तु ऐसी किसी भी सामग्री का प्रकाशन वर्जित होगा जो श्रीमन्‌ अथवा प्रतिष्ठान के विरूद्ध जाता हो। संपादक, उप-संपादक गण श्रीमन्‌ की प्रतिष्ठा का संपूर्ण ध्यान रखेंगे व उनके आगमन पर तुरंत आसन त्याग देंगे। प्रधान संपादक का अभिवादन न करने पर वाले कर्मचारी को तत्काल सेवा से वंचित कर दिया जायेगा।  सभी सपांदक व उप-संपादक गण श्रीमन्‌ के गृह में आयोजित किसी भी समारोह में संख्या बढ़ाने के लिये तत्पर रहेंगे। श्रीमन्‌ के आवास में ताजे दूग्ध, शाक, कंद, मूल, फल आदि पहुंचाने वाले तथा श्रीमन्‌ के श्वान को रथ में भ्रमण हेतु ले जाने वाले संपादकों को विशेष वेतन वृद्धि दी जायेगी। इसके अतिरिक्त वेतन-वृद्धि संबंधी किसी भी मांग को अखबार की स्वतंत्रता के विरूद्ध षड़यंत्र माना जायेगा और तद्‌नुसार कड़ी कार्यवाही की जायेगी। हम राजनीति के क्षेत्र में वंशवाद के घोर विरोधी रहेंगे किंन्तु स्वयं को इन नीतियों से मुक्त रखेंगे। श्रीमन्‌ के बाद श्रीमन्‌ के सुपुत्र ही अखबार के प्रधान संपादक होंगे।

प्रकाशन सामग्री

अखबार मूलतः अन्य पत्रिकाओं से अनूदित व 'साभार' ली गयी सामग्रियों पर आश्रित होगा। अत्यंत आवश्यक होने पर ही मौलिक सामग्री पर विचार किया जा सकेगा, किन्तु इसके एवज में स्वर्ण-मुद्रायें देना प्रतिष्ठान के लिये विधि सम्मत नहीं होगा। श्रीमन्‌ लिखे तथा छपे हुये शब्दों की गरिमा को जानते हैं तथा यह भी जानते हैं कि अमूल्य रचनाओं का मूल्य चंद स्वर्ण मुद्राओं में आंकना लेखक को अपमानित करना होगा। श्रीमन्‌ द्वारा ऐसी धृष्टता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। हो सकता है कि हमारे इस निर्णय से कुछ लेखक रूष्ट हो जायें पर भडा़स निकालने की कुंठा व छपास नामक रोग के कारण वे उग्र विरोध की स्थिति में नहीं होंगे। शेष सामग्रियों का चयन पूर्व वर्णित प्राथमिकताओं के आधार पर किया जायेगा।

प्रकाशन का प्रयोजन

यद्यपि देवराज के चुनाव प्रचार के लिये हमने समय-समय पर आर्थिक सहायता दी है, तथापि वर्तमान स्थिति में हम उनसे अधिक सहयोग की अपेक्षा नहीं रख सकते। हम अपनी ओर से उनकी पूर्ण सहायता करेंगे, फिर भी किन्ही अपरिहार्य कारणों वश श्रीमन्‌ अथवा प्रतिष्ठान के विरूद्ध किसी भी कार्यवाही को अखबार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विरूद्ध सीधा आक्रमण माना जायेगा और हमारी संपूर्ण लड़ाई संपादक-गण, पत्रकार व बुद्धिजीवी लड़ेंगे। हमें किंचित भी परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं होगी। श्रीमन्‌ यह बात भी स्पष्ट तौर पर समझ लें कि प्रकाशन अन्य उद्योगों की तरह तुरंत लाभ प्रदान करने वाला व्यवसाय नहीं है पर इसके दूरगामी परिणाम अत्यंत सुखद होंगे। इस उद्योग के बहाने श्याम-लक्ष्मी को श्वेत-लक्ष्मी में परिवर्तित किया जा सकता है। यद्यपि श्रीमन्‌ ने अब तक केवल धनार्जन ही किया है किंतु इस उद्योग में प्रधान संपादक के रूप में उन्हें अपार यश भी मिलेगा और वे इंद्र की राज-सभा में मानद सदस्य हो सकेंगे। प्रतिष्ठान को शासकीय कोटे से भोजपत्र भी मिलेंगे, जिनके व्यवसाय से अतिरिक्त आय हो सकेगी। अखबार की स्थापना के लिये नाममात्र की दरों पर देवनिवास क्षेत्र में भूमि का आंबटन भी संभव हो सकेगा। कलपूर्जों की आपूर्ति संबंधी निविदा को स्वीकृत कराने के लिये इंद्र के मुख्य यांत्रिक अभियंता श्री विश्वकर्मा को अलग से स्वर्ण-मुद्रायें अर्पित करने की आवश्यकता नहीं होगी। उनके क्रिया-कलापों को लेखा-जोखा योग्य संवाददाताओं द्वारा-जिन्हें खोजी पत्रकार कहा जायेगा-तैयार किया जायेगा। आवश्यकता पड़ने पर इसका प्रयोग किया जा सकेगा।

उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए श्रीमन्‌ से निवेदन है कि वे यथा शीध्र अखबार उद्योग की स्थापना हेतु अपनी स्वीकृति से अवगत करायें।

भूत समुदाय के विकास में टीवी चैनलों का योगदान

- विनोद विप्लव

हमारे देश की जनसंख्या एक अरब से भी अधिक हो गयी है। हमारे देश में हर साल तकरीबन एक करोड़ लोगों की मौत होती है। हिन्दी के टेलीविजन चैनलों ने अपने शोधों से पता लगाया है कि मरने वाले शर्तिया तौर पर भूत बनते हैं और इस तरह से कहा जा सकता है कि हर दिन करीब 27 हजार भूत जन्म लेते हैं।इन चैनलों ने गहन अनुसंधान से यह भी निष्कर्ष निकाला है कि भूत कभी मरते नहीं हैं और इस तरह से धरती पर मानव सभ्यता के आविर्भाव से लेकर अब तक जितने लोगों ने मृत्यु को प्राप्त करके भूत योनि में जन्म लिया है उनकी गणना के आधार पर कहा जा सकता है कि मौजूदा समय में भूतों की आबादी कई अरब महाशंख से भी अधिक हो गयी है।

लेकिन यह अत्यंत दुर्भाग्य की बात है कि महान संचार क्रांति के इस युग में भी भारत में ऐसा एक भी टेलीविजन चैनल नहीं है जो ‘‘भूतों का, भूतों के लिये और भूतों के द्वारा’’ हो, जबकि हमारे देश में ‘‘अभूतों’’ के लिये दो सौ से अधिक चैनल हैं और कुछ दिनों या महीनों में इससे भी अधिक चैनलों के शुरू होने की आशंका है। हमारे लिये अगर कोई संतोष की बात है तो बस यही है कि आज कुछ गिनती के ऐसे चैनल हैं भूतों एवं उनसे जुडे मुद्दों को ‘‘अभूतों’’ की खबरों और उनकी समस्याओं की तुलना में कई गुणा अधिक प्राथमिकता देते हैं। केवल यही दो-चार चैनल हैं जो सही मायने में भूत प्रेमी कहे जा सकते हैं। एक-दो बकवास चैनल तो ऐसे घनघोर भूत विरोघी हैं कि वे भूतों की इतनी बड़ी आबादी की बिल्कुल ही चिंता नहीं करते। यह बड़ी बेइंसाफी है।

इतने विशाल भूत समुदाय को टेलीविजन क्रांति के लाभों से वंचित रखा जाना भूतों के खिलाफ अभूतों की साजिश है। यह वाकई गंभीर चिंता का विषय है और इस दिशा में सरकार, मंत्रियो, नेताओं, उद्योगपतियों, चैनल मालिकों, मीडियाकर्मियों और समाजिक संगठनों को गंभीरता से सोचना चाहिये तथा भूतों पर केन्द्रित टेलीविजन चैनल शुरू करने की दिशा में पूरी शिद्त के साथ पहल करनी चाहिये। ऐसा टेलीविजन चैनल न केवल व्यापक भूत समुदाय के हित में होगा बल्कि टी आर पी, विज्ञापन बटोरने और व्यवसाय की दृष्टि से भी बहुत अधिक लाभदायक होगा जो हर टेलीविजन चैनल का एकमात्र उद्देश्य होता है।

मैंने यह प्रस्ताव उन चैनल मालिकों और उद्योगपतियों के लाभ के लिये तैयार किया है जो कोई टेलीविजन चैनल खोलने के लिये भारी निवेश करने का इरादा तो रखते हैं लेकिन यह फैसला नहीं कर पा रहे हैं कि किस तरह का चैनल शुरू करना व्यावसायिक एवं राजनीतिक रूप से फायदेमंद रहेगा। भूत चैनलों के स्वरूप और लाभ-खर्च का विस्तृत ब्यौरा मैंने तैयार कर लिया है, केवल फिनांसरों का इंतजार है।

मैंने व्यापक अध्ययन एवं शोध के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि अगर भूतों पर केन्द्रित कोई चैनल शुरू किया जाये तो उसकी टी आर पी और उससे प्राप्त होने वाली आमदनी ‘‘अभूतों’’ पर केन्द्रित चैनलों की तुलना में कई करोड़ गुना अधिक होगी। इसके अलावा ऐसे चैनल बहुत कम निवेश में ही शुरू किये जा सकते हैं। इस चैनल के लिये चैनल प्रमुख से लेकर बाईट क्लक्टर जैसे पदों पर नियुक्ति में उन मीडियाकर्मियों को प्राथमिकता दी जाये जो या तो भूत हो चुके हैं या जो जीते जी ही ‘‘भूत सदृश’’ हैं। ‘‘भूत सदृश’’ मीडियाकर्मी ‘‘भूत प्रेमी’’ चैनलों में काफी संख्या में मिल सकते हैं।

भूतों पर केन्द्रित चैनलों को बढ़ावा देने के लिये सरकार एक नया मंत्रालय बना सकती है। भूत समुदाय के विकास में मौजूदा हिन्दी टेलीविजन चैनलों के योगदान तथा भारत में भूत चैनलों की संभावनाओं एवं उनके स्वरूप आदि के बारे में अध्ययन करने के लिये सरकार भूत चैनल आयोग का गठन कर सकती है। सरकार भूतों पर चैनलों की स्थापना को प्रोत्साहित करने के लिये विशेष भूत पैकेज की घोषणा कर सकती है।

यह स्वीकार करते हुये कि इस दिशा में चाहे जितनी तेजी से काम किया जाये, भूतों के लिये सम्पूर्ण टेलीविजन चैनल के शुरू होने में एक-दो साल तो लग ही सकते हैं और ऐसे में सरकार मौजूदा भूत प्रेमी चैनलों को ही सम्पूर्ण भूत टी वी बनने के लिये प्रोत्साहित कर सकती है। इसके लिये सरकार उन्हें विशेष सहायता भी दे सकती है। मेरी जानकारी में हमारे देश में एक या दो चैनल तो ऐसे हैं ही जिनके नाम से इंडिया, आज और न्यूज जैसे शब्द या शब्दों को हटाकर उनके स्थान पर अगर भूत या भुतहा शब्द लगा दिया जाये तो वे सम्पूर्ण भूत चैनल बन जायेंगे और हमारा लक्ष्य काफी हद तक पूरा हो जायेगा।













स्रोत: vinodviplav.wordpress.com

चैनलों का छिछोरापन

पिछले दिनों जब पाकिस्तान की विदेशमंत्री हिना रब्बानी खर भारत की यात्रा पर आयीं तो खास तौर पर हिंदी के चैनलों में इस बात की होड़ लग गयी कि कौन कितना छिछोरा साबित हो सकता है। चैनलों ने उनके आगमन का कवरेज इस तरह किया जैसे कोई फिल्म अभिनेत्री या विश्व सुन्दरी किसी प्रतियोगिता में विजेता बनने के बाद यहां पहुंची हो। जरा स्टार न्यूज की रिपोर्टिंग पर गौर करें:

‘अब देखिए हिना रब्बानी का ये चश्मा। 34 साल की पाकिस्तानी विदेशमंत्री की खूबसूरती को और ज्यादा निखारता हुआ। (पृष्ठभूमि में एक गाना चल रहा था गोरे-गोरे मुखड़े पे काला-काला चश्मा... तौबा खुदा खैर करे...) हाथ में डिजाइनर बैग, गले में कीमती ज्यूलरी और हाथ में बेशकीमती घड़ी (स्क्रीन पर घड़ी का क्लोजप)। ये वो चंद साजो-सामान हैं जो पाकिस्तान के इस मंत्री की खूबसूरती में चार-चांद लगा रही हैं।’

न्यूज-24 ने अपनी रिपोर्टिंग में कहा-‘हिना रब्बानी यानी पाकिस्तान की सियासत का वो मुस्कुराता हुआ दिलकश चेहरा जो अपने फुर्सत के लम्हों में जिंदगी के हर रंग को जीता है। (पृष्ठभूमि में किसी फिल्म का गीत चल रहा था- मैं हूं खुशरंग हिना... प्यारी खुशरंग हिना) हिना के ये दो चेहरे एक में जींस में एक बिल्कुल अलग फैशन स्टेटमेंट देती और एक हिंदुस्तान की सरजमीं पर बतौर विदेशमंत्री सिर पर पल्लू संभालते हुए, कूटनीति के नए सियासी खेल का आगाज करते हुए। (अब दूसरा गाना शुरू हो गया था-मेरी अदा भी आज क्या कर गयी...) हिना जितनी खुबसूरत है उतना ही बेशकीमती उनका हर साजो-सामान है। इस कैरी बैग को लीजिए इसकी कीमत (स्क्रीन पर हैंड बैक और साथ में लिखा हुआ ‘मूल्य 17 लाख रुपए’) जिन नाजुक हाथों में हिना ने यह 17 लाख रुपए का कैरी बैग थामा है उन्हीं नाजुक कलाइयों में इस घड़ी को देखिए (घड़ी का क्लोजप) गोल्प्लेडटेड इस घड़ी की कीमत ज्यादा नहीं बस डेढ़ लाख रुपए के आसपास है। घड़ी के साथ में डायमंड बै्रसलेट कलाइयों की खूबसूरती को निखार रही है वहीं गले में मोतियों की माला सपफेद सादगी को बयां कर रही है। अब खूबसूरत आंखों पर चढ़ा यह गॉगल्स हिना की खुबसूरती को बेशकीमती बना रहा है...’

‘आज तक’ की रिपोर्टिंग भी पूरी तरह इसी तर्ज पर थी। ज्यादातर चैनलों ने ‘मैं हूं खुशरंग हिना....’ को पृष्ठभूमि में बजाया। एक चैनल ने तो कमेंट्री के साथ-साथ लगातार इस गाने को चलाया-‘चांदी जैसा रंग है तेरा, सोने जैसे बाल, एक तू ही धनवान है गोरी बाकी सब कंगाल।’

चैनलों के इस छिछोरेपन पर पाकिस्तानी मीडिया ने भी गौर किया। उसने अपनी रिपोर्टिंग में लगभग सभी चैनलों के टुकड़े प्रस्तुत करते हुए इसका मजाक उड़ाया। एक इंटरव्यू में खुद विदेशमंत्री हिना रब्बानी ने इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि उनकी इस यात्रा को एक गलत अंदाज से पेश किया गया जिसमें राजनीतिक पक्ष पूरी तरह गायब था। आश्चर्य की बात है कि यह हल्कापन हिन्दी के चैनलों पर ही हावी रहा। अंग्रेजी के चैनलों ने भी अपनी रिपोर्टिंग में हिना की खूबसूरती का और सबसे कम उम्र की विदेशमंत्री होने का जिक्र तो किया लेकिन उनका पूरा फोकस इस बात पर रहा कि हिना की यात्रा से पाकिस्तान व भारत के संबंधों में क्या तब्दीली आ सकती है।













स्रोत : समकालीन तीसरी दुनिया

गीत-संगीत : जगजीत और जनगीत

- दिनेश चौधरी 
गजीत इतना कुछ गाकर चले गये हैं कि उन्हें सुनते-सुनाते कभी यह महसूस ही नहीं होता कि वे इस दुनिया-ए-फानी में नहीं हैं। रूमानी ग़ज़लें जगजीत ने खूब गायी हैं। ग़ज़लों में आर्केस्ट्रा का बेहतरीन इस्तेमाल भी किया है। पर एक दौर ऐसा भी आया जब लगने लगा कि अब वे टाइप्ड होते जा रहे हैं। गाने के अंदाज में एकरसता-सी आने लगी व आर्केस्ट्रा के साथ पश्चिमी वाद्यों का प्रयोग कुछ ज्यादा ही नजर आने लगा। इसी दौर में उनके साथ एक बड़ी दुर्घटना हुई। उनके एकमात्र बेटे विवेक उर्फ बाबू ने मुंबई में एक कार हादसे में अपनी जान गंवा दी। चित्रा-जगजीत के लिये यह हादसा असहनीय था। चित्रा तो आज तक इससे उबर नहीं पायीं, उन्होंने गाना ही छोड़ दिया। दूसरी तरफ इस हादसे ने जगजीत के दिलो-दिमाग को भी कुछ तरह झिंझोड़ा कि उनकी गायकी में कुछ परिवर्तन साफ तौर पर नजर आने लगे।

ऐसा नहीं है कि जगजीत ने पहले कभी भजन न गाये हों। चित्रा के साथ उनके गाये भजन पहले ही काफी पापुलर थे। खासतौर पर वह अलबम जिसमें उन्होंने गुरूनानक की वह मशहूर पंक्तियां गायी थीं-"हे गोविंद, हे गोपाल, हे दयाल यार...।" लेकिन विवेक के चले जाने के बाद उन्होंने सूरदास से लेकर कबीर तक के भजनों में खुद को डुबोया। इसी दौर में उनकी ग़ज़लों में सूफियाना कलाम की छाप भी दिखाई पड़ने लगी -"मुझमें जो कुछ अच्छा है सब उसका है, मेरा जितना चर्चा है सब उसका है।" यह ग़ज़ल उन्होंने बाबू के चले जाने के बाद समाज सेवी संस्था "क्राई" के लिये तैयार किये गये अल्बम में शामिल की थी। इसी अल्बम में एक ग़ज़ल और थी, जिसका जिक्र मैं वर्तमान संदर्भ में खासतौर पर करना चाहता हूं और शायद जगजीत के गायन के इस पहलू की चर्चा कुछ कम ही हुई है। यह जगजीत के गायन का जनवादी पहलू है-

"अब मैं राशन की कतारों में नजर आता हूं,
अपने खेतों से बिछड़ने की सजा पाता हूं "

अथवा

"भूखे बच्चों की तसल्ली के लिये,
मां ने फिर पानी पकाया देर तक"

पिछले दिनों सुविख्यात बांसुरी वादक रोनू मजुमदार से इत्तिफाकन मुलाकात हुई तो उन्होंने भी मेरी इस बात पर सहमति जाहिर की कि "हां, बाबू के गुजरने के बाद जगजीत के गायन में अध्यात्म की झलक स्पष्ट देखी जा सकती है।" रोनू कहते हैं कि मैंने बेहद संजीदा जगजीत को अपनी शादी के स्वागतोत्सव में  भांगड़ा करते हुए भी देखा था और उन्हें बाबू के गुजरने के बाद अपने कांधों पर फूट-फूटकर रोते हुए भी देखा। कलेजे को चीर देने वाली उनकी हूक "चिट्ठी न कोई संदेश, जाने वो कौन-सा देश, जहां तुम चले गये" में सुनाई पड़ी थी।

जगजीत की एक खासियत और थी- ग़ज़लों अथवा गीतों का उनका चुनाव बेहतरीन होता था। उन्हें शायरी की समझ थी और इसका कारण शायद यह था कि कालेज के दिनों में उनकी सोहबत सुदर्शन फाकिर जैसे शायरों से थी, जिनकी "बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी" को उन्होंने सबसे पहले रेकार्ड किया था। जगजीत के सबसे ज्यादा पापुलर गीतों में "हम तो हैं परदेस में, देश में निकला होगा चांद" एक तरह से मील का पत्थर है। वे यूरोप, अमेरिका, कैनेडा-आदि  में खूब कंसर्ट करते रहे और उन्हें पता था कि बाहर रहने वालों का कलेजा अपनी मिट्टी के लिये किस तरह कलपता है। यह गीत उन्हीं लोगों के दर्द को बयान करता है। बाद में गायन में उनके समकक्ष-समकालीन कलाकार नीना-राजेन्द्र मेहता  (एक प्यारा-सा गांव, जिसमें पीपल की छांव) व कनिष्ठ कलाकार पंकज उधास (चिटृठी आई है) ने भी अपने गायन में कुछ इसी तरह का रंग देने का प्रयास किया पर इन गीतों में वो बात नजर नहीं आयी जो जगजीत के "हम तो हैं परदेस में" में थी।

जाहिर है कि जब जगजीत जैसा कलाकार जनगीत जैसी चीजों को अपनी आवाज देगा तो यहां भी उनके चयन की गुणवत्ता साफ नजर आयेगी। पहली ग़ज़ल "धूप" फिल्म से है :

हरेक घर में दिया भी जले अनाज भी हो
अगर न हो कहीं ऐसा तो एहतिजाज भी हो

हुकुमतों को बदलना तो कुछ मुहाल नहीं
हुकुमतें जो बदलता है वो समाज भी हो




दूसरा गाना बिल्कुल ही दौरे-हाल का है। नवउदारवाद की आंधी ने सामाजिक विषमता की खाई को बहुत चौड़ा कर दिया है। संपन्नता मुट्ठीभर हाथों में सिमटकर रह गयी है। मजदूरों को उचित पैसे तो दूर, अब काम मिलना भी बंद हो रहा है। दलित-आदिवासी उत्थान के तमाम नारों के बावजूद हाशिये पर जा रहे हैं। इस परिदृश्य को अपने गाने में प्रतिबिंबित करने का साहस कोई आम व्यावसायिक कलाकार नहीं कर सकता जो जगजीत ने किया :



यह कैसी आजादी है 
चंद घराने छोड़ के भूखी नंगी हर आबादी है

जितना देस तुम्हारा है ये
उतना देस हमारा है
दलित, महिला, आदिवासी , सबने इसे संवारा है

ऐसा क्यों है कहीं ख़ुशी है
और कहीं बर्बादी है

यह कैसी आजादी है….

अंधियारों से बाहर निकलो
अपनी शक्ति जानो तुम
दया- धरम की भीख न मांगो
हक अपना पहचानो तुम
अन्याय के आगे जो रुक जाये वो अपराधी है

यह कैसी आजादी है….

जिन हाथों में काम नहीं है
उन हाथों को काम भी दो
मजदूरी करने वालों को , मजदूरी के दाम भी दो
बूढ़े होते हाथों -पांव को, जीने का आराम भी दो
दौलत का हर बंटवारे में, मेहनतकश का नाम भी दो
झूठों के दरबार में, अब तक सचाई फरयादी है

यह कैसी आजादी है
चंद घराने छोड़ के भूखी नंगी आबादी है







मुद्दा : ग्लीवेक का संदेश

-जे के कर

जिन चिरागों से रौशन हुई दुनिया, वे चिराग बुझने न पाये. यह संदेश है एक अप्रैल 2013 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ग्लीवेक पर दिये गये फैसले का. स्विट्जरलैंड की दवा कंपनी नोवार्टिस रक्त कैंसर की दवा ग्लीवेक को भारत में पेटेंट कराने की कानूनी लड़ाई हार गई है. उच्चतम न्यायालय ने ग्लीवेक पर पेटेंट के अधिकार का दावा तथा भारतीय कंपनियों को इसके सामान्य संस्करण के विनिर्माण और कारोबार से रोकने की अपील वाली नोवार्टिस की याचिका खारिज कर दी. कंपनी ने याचिका में कहा था कि इस दवा में उसने एक नए पदार्थ का इस्तेमाल किया है लिहाजा उसे इसका पेटेंट मिलना चाहिए.

एक प्रकार के रक्त कैंसर, क्रॉनिक मेलायड ल्यूकेमिया की दवा है इमानिटिब मीसिइलेट. जिसके 400 मिली ग्राम की दवा मरीज को जीवन पर्यंत खानी पड़ती है. इस दवा पर स्विस बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी नोवार्टिस का पेटेंट अधिकार है. नोवार्टिस इस दवा की एक माह की खुराक 1 लाख 20 हजार में बेचती है. वर्ष 2006 में भारतीय दवा कंपनी नेटको ने इसे करीब 10 हजार रुपयो में भारतीय बाज़ार में उपलब्ध करा दिया.

उस समय से ही नेटको एवं नोवार्टिस के मध्य कानूनी लड़ाई चल रही थी. जिसका पटाक्षेप सर्वाेच्च न्यायालय ने कर दिया है. वास्तव में इमाटिनिब मीसाइलेट एक पुरानी दवा है, जिसके बीटा क्रिसटलाइन रूप को भारत में नोवार्टिस द्वारा बेचा जा रहा था. पहले तो जब माननीय पी चिदंबरम साहब नोवार्टिस की ओर से मद्रास उच्च में खड़े हुए तब नेटको कंपनी को पेटेंट अधिकार का हवाला देकर बाज़ार से खदेड़ दिया गया. लेकिन नेटको ने लड़ाई जारी रखी. पहले मद्रास उच्च न्यायालय फिर आईपाब यानी इंटेलैक्चुएल प्रापर्टी एपीलेट बोर्ड, चेन्नई ने नेटको के पक्ष में फैसला देकर दुनिया को चौंका दिया.

अब दवा उद्योग के विदेशी भद्र पुरुष-महिला भारत के उस कानून के पीछे ही पड़ गये कि यह विश्व व्यापार समझौते का उल्लघंन करता है. समझौते की वह धारा है भारतीय पेटेंट कानून 2005 की धारा 3(द). जिसके तहत उपलब्ध दवाओं के लवण, क्षार, अन्य रूपों, यौगिक, मिश्रण, संयोजन, शुद्ध रूपो, कणों के आकार जैसे बचकाने तर्काे के आधार पर भारत में किसी को भी दवाओं पर पेटेंट अधिकार (पढ़े एकाधिकार) नही दिया जायेगा तथा यह विश्व व्यापार संधि के अनुकूल भी है.

यही वह कानूनी धारा है, जो देशी तथा विदेशी दवा कंपनियों को भारत में मनमानी करने से रोकती है. हम इसके नेपथ्य में जाकर देखना चाहते हैं या यूं कहिये कि आप को भी ले जाना चाहते हैं ताकि सनद रहे कि इस जीत के पीछे किन लोगों ने कुर्बानियॉ दी हैं, संघर्ष किया है, किसने इसे दिशा दी थी, भले ही अब वे वक्ती तौर पर स्वयं नेपथ्य में चले गये हैं.

याद कीजिये 26 दिसंबर 2004 की वह भयंकर सुनामी, जिसने पृथ्वी को अपनी ही कक्ष में थोड़ा सा और झुका दिया. उस दिन एक और सुनामी भी आई थी. भारत ने अपने पेटेंट कानून में संशोधन के लिये मसविदा पेश किया था. उस मसविदे से दवा की दुनिया दुबारा हिल उठी थी. उसे पेश किया था तत्कालीन वाणिज्य मंत्री कमलनाथ ने. यदि उस मसौदे को ज्यों का त्यों कानून बनने दिया गया होता तो भारत में बिकने वाली 30 प्रतिशत जीवन रक्षक दवाएं तुरंत ही पेटेंटेड हो जाती. उससे कई भारतीय दवा कंपनियों को अपना कारोबार समेट लेना पड़ता. करीब 165 देशों को निर्यात किये जाने वाले भारतीय दवाओं को बंद करना पड़ता. आज भी विश्व के कई देश भारत से आयातित दवाओं पर ही निर्भर हैं.

ऐसे समय में 61 वामपंथी सांसदो ने केन्द्र सरकार पर दबाव बनाया तथा 12 संशोधन पेश किये जिसमें से 10 संशोधनो को सरकार ने मान लिया. इन्ही संशोधनों का नतीजा है कि भारतीय पेटेंट कानून में धारा 3 (द) मौज़ूद है. इसी धारा के चलते आज भी भारत में दवाओं पर एकाधिकार प्राप्त करना नामुमकिन है. नतीजा आपके सामने है कि ग्लीवेक पर नोवार्टिस को एकाधिकार देने से सर्वाेच्च न्यायालय ने भी इंकार कर दिया. न्यायालय तो देश के कानून के अनुसार ही फैसला देगा न !

इसके अलावा भी वामपंथी सांसदों ने दूर की कौड़ी सोची तथा तदनरूप कानून में अनिवार्य लाइसेंसिग की धारा को सरल तथा लागू किये जाने योग्य बनाया. जिसके तहत जन स्वास्थ्य के लिये भारत सरकार यदि किसी विदेशी पेटेंटेड का मूल्य अत्यधिक हो तो उसे किसी भारतीय कंपनी को वाजिब़ दर पर उपलब्ध करवाने की अनुमति दे सकता है. और वह दिन भी आया जब भारत सरकार ने पिछले वर्ष बायर की कैंसर की दवा नैक्सेवार को एक भारतीय कंपनी को बनाने का अधिकार प्रदान कर दिया. बायर के दवा की एक माह के खुराक की कीमत है 2 लाख 80 हजार रुपये, जिसे भारतीय दवा कंपनी ने 8,800 रुपये में उपलब्ध करवा दिया.

इस प्रकार 22 मार्च 2005 को 61 वामपंथी सांसदों ने जो कदम उठाया था, उसका लाभ हमें आज भी मिल रहा है. आज वामपंथ की कम से कम संसद में वो शक्ति नही है. तभी तो एक के बाद एक जनविरोधी नीतियों को अमली जामा पहनाया जा रहा है. मै इस लेख के माध्यम से यह आह्वान नही करने जा रहा हूं कि वामपंथ को फिर से संसद में वही ताकत जनता प्रदान करे. लेकिन इससे कौन असहमत होगा कि जिन चिरागों से रौशन हुई दुनिया, वे चिराग बुझने न पाये. आखिर यही ग्लीवेक प्रकरण का भी तो संदेश है.











रविवार.काम से साभार

लघुकथा : इलाज

 -विष्णु नागर

एक मां अपने छह साल के बच्चे को लेकर डॉक्टर के पास गई।

उसने डॉक्टर से कहा–वैसे तो मेरा बच्चा स्वस्थ–प्रसन्न है। खूब दूध पीता है, डटकर खाना खाता है, छककर मिठाई खाता है, मुट्ठी भर–भरकर नमकीन खाता है, जी भर खेलता है, मेहनत से पढ़ता है, रंग ला दो तो ढेरों पेटिंग बनाकर रख देता है, सुरीला गाना गाता है, खूब खुश रहता है। लेकिन एक समस्या है। यह कोकाकोला–पेप्सी नहीं पीता, नेस्ले की चाकलेट नहीं खाता, होस्टेस की पोटेटो चिप्स नहीं खाता, लिओ के खिलौने नहीं खेलता, मैंगी के नूडल्स नहीं खाता, डॉल्ट्स की आइसक्रीम नहीं खाता। पता नहीं इसे क्या बीमारी है? मैं बहुत परेशान हूँ डॉक्टर साहब।

डॉक्टर साहब भी चक्कर में। ऐसा केस पहले कभी नहीं आया था। उन्होंने बच्चे का सीना, पेट, पीठ, दाँत, मुँह, आँख, नाखून सब देख लिए। टट्टी पेशाब का रंग भी पूछ लिया। दिन में कितनी बार जाता है, यह भी जान लिया। एक्सरे ले लिया। सब ठीक था। लेकिन आसामी बड़ा था। डॉक्टर मरीज को यों ही हाथ से जाने देना नहीं चाहता था।वह सोचता रहा, सोचता रहा। अचानक उसने पूछा–‘यह टीवी और वीडियो देखता है?’

माँ ने कहा–‘डॉक्टर साहब, मैं हड़बड़ी में यह बताना ही भूल गई कि यह टीवी और वीडियो नहीं देखता। इस बात से तो मैं सबसे ज्यादा परेशान हूँ।’

डॉक्टर ने जवाब दिया, ‘चिंता मत कीजिए। मैं इसे टीवी और वीडियो देखने का सात दिन का कोर्स देता हूँ। आपको तीसरे दिन से बच्चे की हालत में सुधार नजर आएगा।’


और अंत में : मॉल के अन्दर - बाहर

- हनुमंत शर्मा

फरीह पर निकले 'गॉड जी ' चीन के एक मॉल में घुसे और भीतर ही भीतर अमेरिका में जा निकले |

भीतर यह देखकर उनके आश्चर्य का पारावार ना रहा कि सब के पास खाने को पिज़्ज़ा बर्गर है पहनने को ब्रांडेड कपड़े हैं स्वागत के लिए आतुर सुन्दर लड़के लडकियां है |...बानी और पानी सब एक- रस होकर, दुनिया एक गाँव बन गयी है | 

‘मै इन्हें भले एक ना कर सक मगर बाज़ार ने सब भेद भाव मिटाकर दुनिया को एक कर दिया ‘ 'गॉड जी' ने खुश होकर सोचा |

पर बाहर निकले तो ये देखकर गश खा गये कि भीतर के लोग जितने मालामाल हैं बाहर के लोग उतने ही कंगाल हैं ...भीतर जितनी समरसता है बाहर की दुनिया जाति धर्म भाषा और क्षेत्र में उतनी ही बँटी है |
गॉड जी' जी तुरंत अपनी नोट बुक में दर्ज किया कि क्या दुनिया का बँटा होना बाज़ार के एक होने में मदद करता है ?और क्या मॉल की खुशहाली का बाहर की कंगाली से कोई समानुपातिक संबंध है ?

मगर स्वर्ग लौटकर 'गॉड जी' किसी निष्कर्ष पर पहुँचते इसके पहले ही उनकी नोटबुक चोरी हो गयी। कहते हैं इसमें सी आई ए का हाथ है !!!




February 19, 2013

ईट इंडिया कंपनी : हमारी भारत में 4 हजार शाखाएं हैं!


र इन्सान को जिस मुल्क में वह रहता है, उस मुल्क का बाशिन्दा कहलवाने में गर्व होना चाहिए। हमें भी अपने मुल्क से बेइन्तहा प्यार है। शायद इसलिए कुछ लोगों ने बड़ी बुलन्दी के साथ एक नारा उछाला - ‘गर्व से कहो, हम भारतीय हैं।’

हम भारत में जन्मे हैं तो हमारा हक भी बनता है कि हम खुद को भारतीय कहें। बार-बार कहें। थक कर चूर न हो जाएँ तब तक खुद को भारतीय कहें। क्यों न कहें ? आखिर हमारा पाँच हजार वर्ष पुराना इतिहास है, शून्य का आविष्कार हमने किया, योग और आयुर्वेद दुनिया को हमने दिया। इससे ज्यादा देते तो दुनिया वाले हमें फिजूलखर्च मानते।

"ईस्ट इंडिया कंपनी का नाम बदल गया है। नया नाम है - ईट (EAT) इंडिया कंपनी ! हाल ही में दिल्ली के एक सेमिनार में अन्तरराष्ट्रीय व्यापार संगठन के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा - ’हम भारतीय जनता के शुक्रगुजार हैं। आज हिन्दुस्तान में चार हजार विदेशी कम्पनियाँ काम कर रही हैं। भारत की जनता ने साथ नहीं दिया होता तो सफलता का यह मुकाम हासिल नहीं किया जा सकता था।’ ऐ खुदा ! चार हजार ईट इंडिया कंपनियाँ !"

इतिहास गवाह है कि हमने हमेशा एक सच्चे भारतीय होने का धर्म निभाया है ! सरहदों की लड़ाइयां हमारे लिए फिजूल थीं। परलोक सुधारना हमारे लिए ज्यादा जरूरी रहा। विदेशी आक्रमणकारियों के खिलाफ जंग लड़ना समय की बरबादी थी। हमारे लिए अहिंसा का संदेश फैलाना ज्यादा अहम था। जमीन के चंद टुकड़ों के लिए खून-खराबा हमें रास नहीं आया। विश्व-शांति के लिए कबूतर उड़ाना हमारे लिए सबसे बड़ी उपलब्धि थी। फिर ऐसा क्या हुआ कि हमारा गर्व चकनाचूर हो गया। हिन्दुस्तान की हैसियत एक खस्ताहाल और कर्जदार देश के रूप में दर्ज हो गई।

  क्या आज की तारीख में हम खुद को गर्व के साथ कह सकते हैं कि हम भारतीय हैं ? भारतीय होने में ऐसी क्या खास बात है ? क्या भारतीय दुनिया की सबसे बड़ी बहादुर कौम है ? या यह कि देशभक्ति के मामले में कोई हमसे टक्कर नहीं ले सकता ? या जो हुनर भारतीयों के पास है, उसकी मिसाल और कहीं नहीं मिल सकती ?

जिन लोगों ने हिन्दुस्तान में बिजली बनाने के लिए एनरॉन को बुलाया था, वे भारतीय थे। अब फिर से फ्रांस की एक कंपनी को न्यूक्लीयर पॉवर के उत्पादन के लिए बुलाया गया है। क्या बिजली बनाना भारतीयों के लिए वर्जित है ? या बिजली बनाने जैसा घटिया काम भारतीय करने लग गए, तो गर्व करने लायक क्या बचेगा ? जो काम विदेशी कर सकते हैं, वही काम भारतीय करने लग गए तो क्या हमारे इतिहास में एक बदनुमा दाग नहीं लग जाएगा ?

भारतीयों का भी एक इतिहास रहा है। इतिहास बेहद क्रूर और बेरहम होता है। किसी को भी नहीं बख्शता। भारतीयों का इतिहास एक हजार साल की गुलामी का इतिहास रहा है। शक, हूण, तातारी, लोदी, मुगल और अंग्रेज हमारी शस्य-श्यामला धरती पर राज करते रहे। न संसद में और न ही सड़क पर इस बात को आज कोई याद रखना चाहता है। यह सवाल हर उस शख्स से पूछना चाहिए जो खुद को भारतीय बतलाने में गर्व महसूस करता है।

जिस मुल्क में ढाई लाख किसानों ने आत्महत्याएँ की हों, जिस मुल्क में कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा हो, और जिस मुल्क में करोड़ों लोगों को एक वक्त की रोटी भी नसीब न होती हो, वहाँ किस पर गर्व करें ? यह महज नसीब की बात नहीं है। इस शर्मिन्दगी के लिए हम लोग जिम्मेदार हैं।

जो कौम अपनी गुलामी के दंश को नहीं अनुभव करती, उसका गुलाम हो जाना फिर से तय है। मुगलों को हमने नहीं बुलाया। उन्होंने छह सौ वर्शों तक राज किया। अंग्रेजों को हमने नहीं बुलाया। उन्होंने दो सौ सालों तक राज किया। इस बात का तो कयास भी नहीं लगाया जा सकता कि जिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों को हमने (सरकार ने) दावत देकर बुलाया है वे हिन्दुस्तान पर कितने सालों तक राज करेगी ?

हद दर्जे की गरीबी, जहालत और खौफ में जीने वाला व्यक्ति गर्व से नहीं कह सकता कि वह भारतीय है। ऐसे हालात के लिए हमारी सरकारें, राजनेता और अफसरशाही जिम्मेदार हैं, जो बेशर्मी के साथ और पूरी रफ्तार के साथ देश को बेचने का काम कर रही है। लेकिन जिम्मेदारी हमारी भी है। जब हम विदेशी शीतल पेय की एक बोतल गटकते हैं, तो प्रति बोतल हिन्दुस्तान का सात रूपया बाहर चला जाता है। याने राज लाखों सॉफ्ट ड्रिंक्स पी-पीकर हम अपने ही मुल्क को कंगाल बनाने का काम करते हैं। विदेशी कंपनी के मिनरल वाटर का पानी हम भारतीय पीते हैं और धनवान अमरीका बनता है।

हमारे खान-पान, रहन-सहन और सोच-विचार पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा है। समूचा सिस्टम और मीडिया इनके साथ खड़ा है। भारत के तमाम बड़े उद्योगपति इनके साथ खड़े हैं। अगर हम सचमुच चाहते हैं कि खुद को गर्व से भारतीय कह सकें तो शुरूआत अपने घर से करनी पड़ेगी। विदेशी उत्पादनों के लिए घर के दरवाजे बन्द करने पड़ेंगे। सप्लाई लाइन बंद हो जाएगी तो जंग जीतने में आसानी हो जाएगी। दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात - हम उसी राजनैतिक पार्टी को वोट देंगे जो हिन्दुस्तान से बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भगाने का ऐलान करेगी।

ईस्ट इंडिया कंपनी का नाम बदल गया है। नया नाम है - ईट (EAT) इंडिया कंपनी ! हाल ही में दिल्ली के एक सेमिनार में अन्तरराष्ट्रीय व्यापार संगठन के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा - ’हम भारतीय जनता के शुक्रगुजार हैं। आज हिन्दुस्तान में चार हजार विदेशी कम्पनियाँ काम कर रही हैं। भारत की जनता ने साथ नहीं दिया होता तो सफलता का यह मुकाम हासिल नहीं किया जा सकता था।’ ऐ खुदा ! चार हजार ईट इंडिया कंपनियाँ ! हमारे रहनुमा सुनेंगे तो नहीं, फिर भी उनकी खिदमत में पेश है यह शेर - ‘बरबाद गुलिस्तां करने की, बस एक ही उल्लू काफी था ! हर शाख पे उल्लू बैठा है, अब हाले - गुलिस्तां क्या होगा ?

संपर्क:
अक्षय जैन, 13 रशमन अपार्टमेंट, उपासनी हॉस्पिटल के ऊपर, एस. एल. रोड,
मुलुंड (प.), मुंबई- 400 080, फोन: 022 - 25601588, मो. 08080745058



बहस : तेल का खेल


-देविंदर शर्मा

तेल

केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने हाल ही में अमरीकी कम्पनियों पर भारत के तिलहन उत्पादन कार्यक्रम को पटरी से उतारने का आरोप लगाया है. कुछ दिनों पहले विदर्भ के दौरे पर गए पवार ने कहा- पूरे अमरीका में सोयाबीन का उत्पादन जेनेटिकली मोडीफाइड तरीके से किया जाता है. आपने (अमरीका ने) अपने देश में यह तकनीक अपनाई है, लेकिन आप भारत में ऐसा नहीं होने देते हैं. यह ठीक नहीं है और यह चेतावनी सूचक है."

इसके कुछ दिनों बाद ही पंजाब कृषि आयोग के अध्यक्ष डॉ. जी.एस. कालकट ने कहा- “भारत खाद्य तेलों और दालों का आयात करता है यानी दूसरे देशों से खरीदता है.पंजाब में इनका उत्पादन क्यों नहीं किया जा सकता?” पर अगले ही वाक्य में उन्होंने मक्के के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद की मांग की. ऐसी ही मांग उन्होंने तिलहन और दलहन के लिए नहीं की. एक और बात, कमीशन फॉर एग्रीकल्चरल कॉस्ट एंड प्राइसेस (सीएसीपी) के चेयरमैन डॉ.अशोक गुलाटी खाद्य तेल के बढ़ते आयात के लिए उस पॉम ऑयल की वकालत करते हैं, जिसके पेड़ पर्यावरण के लिए विनाशकारी होते हैं.

खाद्य तेलों के आयात में काफी वृद्धि हुई है. 2012 के अंत तक यानी नवम्बर 2011 से लेकर अक्टूबर 2012 तक खाद्य तेलों का आयात 90.1 लाख टन से ज्यादा पहुंच गया है, जिसकी अनुमानित कीमत 56,295 करोड़ रूपए के आसपास बैठती है. वर्ष 2006-07 और 2011-12 के बीच खाद्य तेलों का आयात 380 प्रतिशत तक बढ़ गया. ऐसे में तत्काल इस बात की जरूरत है कि आयात घटाया जाए. इसका लाभ यह होगा कि हर वर्ष 56,295 करोड़ रूपए जो विदेशी विनिमय में इंडोनेशिया, मलेशिया, अमरीका और ब्राजील के किसानों के हाथ में चले जाते हैं, वो भारत के किसानों के हाथ में आएंगे. भारत इन्हीं देशों से खाद्य तेल खरीदता है.

क्या भारत के पास तिलहन की विकसित किस्में नहीं हैं, जिससे उत्पादन में वृद्धि नहीं हो पा रही है? या क्या शरद पवार, जी.एस. कालकट, डॉ. अशोक गुलाटी जानबूझकर ऐसे बयान जारी कर रहे हैं और गलत राह पर चल पड़े हैं? भारत की ओर देखिए. वर्ष 1993-94 में यह खाद्य तेलों के मामले में लगभग आत्मनिर्भर था. धीरे-धीरे यह खाद्य तेल में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा आयातक देश बन गया.

पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी बढ़ते आयात से चकित थे. मुझे याद है, उन्होंने 1985 में खाद्य तेल के बढ़ते आयात पर चिन्ता जताई थी. तब यह 1500 करोड़ रूपए तक पहुंच गया था. एक बार उन्होंने मुझसे पूछा था, "मैं यह समझ सकता हूं कि हम पेट्रोल और खाद क्यों खरीदते हैं, क्योंकि हमारे यहां इसका पर्याप्त उत्पादन नहीं होता है, लेकिन हम खाद्य तेल क्यों खरीद रहे हैं, जब हम इसका उत्पादन कर सकते हैं."

उन्होंने सही दिशा में कदम उठाते हुए ऑयलसीड्स टेक्नोलॉजी मिशन की शुरूआत की, ताकि उत्पादन बढ़े और आयात घटे. उनका प्रयास रंग लाया. अगले दस वर्षो में ही 1993-94 तक भारत खाद्य तेल उत्पादन में लगभग आत्मनिर्भर हो गया. भारत घरेलू जरूरत का 97 प्रतिशत तक उत्पादन करने लगा. इसे "पीली क्रांति" का नाम दिया गया, लेकिन उपेक्षा के कारण धीरे-धीरे स्थितियां खराब हुई.

जो किसानों के लिए नकदी फसल साबित हो सकती थी, वह मुख्य निर्यातक देशों के लिए लाभकारी साबित हुई.

आयात शुल्क कम करने के लिए स्वयं शरद पवार जिम्मेदार हैं. 2004 में आयात शुल्क 75 प्रतिशत था, कोटा सिस्टम भी था, इसके बावजूद कच्चे खाद्य तेल शोधित खाद्य तेल का आयात सस्ता था. वर्ष 2010-11 में कच्चे खाद्य तेल का आयात शुल्क शून्य कर दिया गया और शोधित खाद्य तेल पर आयात शुल्क 7.5 प्रतिशत. ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं, वर्ष 2006 में 47 लाख टन खाद्य तेल आयात हुआ था, जो वर्ष 2012 में 90.1 लाख टन तक पहुंच गया.

ऐसा करते हुए शरद पवार बहुत आसानी से खाद्य तेल आयात को बढ़ाकर जेनेटिकली मोडिफाइड यानी जीएम सोयाबीन को बढ़ावा दे रहे हैं. वह एक बात नहीं बता रहे हैं, शोध के अनुसार, गैर-जीएम प्रजाति की तुलना में जीएम सोयाबीन का उत्पादन 4 से 20 प्रतिशत कम होता है. अत: यह कतई समझ में नहीं आता है कि जीएम प्रजाति के सोयाबीन को क्यों बढ़ावा दिया जा रहा है.

यह कहना भी गलत है कि तिलहन की मांग को पूरा करने के लिए 30 प्रतिशत ज्यादा क्षेत्र में तिलहन की फसल उगानी पड़ेगी. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान के अलावा महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के कुछ क्षेत्रों को आसानी से गेहूं व चावल से सरसों व सोयाबीन की फसल की ओर लाया जा सकता है. इससे जहां गेहूं और चावल के भंडारों पर दबाव घटेगा, वहीं सूखी जमीन के किसानों को ज्यादा आय भी हासिल होगी. इसके अलावा भूजल का उपयोग घटेगा, क्योकि तिलहन उत्पादन में ज्यादा पानी की जरूरत नहीं पड़ती है.

इसके उलट पॉम आयल प्लांटेशन हानिकारिक सिद्ध हो रहे हैं. वर्ल्डवाच इंस्टीटयूट ने बताया है कि ताड़ रोपन से मरूस्थलीकरण को बढ़ावा मिलता है. इसके अलावा इससे ग्लोबल वार्मिग भी बढ़ती है, क्योंकि ताड़ के पेड़ उष्णकटिबंधीय जंगलों की तुलना में 10 गुना ज्यादा कॉर्बन डाइ ऑक्साइड उत्सर्जित करते हैं.

हर हाल में अनुभवों से यह स्पष्ट है, उत्पादन बढ़ाने के लिए किया गया कोई भी प्रयास तब तक लाभदायी नहीं होगा, जब तक आयात शुल्क को 130 से 150 प्रतिशत तक नहीं बढ़ाया जाएगा. यदि अनुकूल नीतियां बनें, तिलहन उत्पादन आर्थिक रूप से लाभदायी हो, तो फिर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान जैसे राज्य बहुत आसानी से तेल के आपूर्तिकर्ता हो जाएगा. साथ ही, प्रसंस्करण उद्योग से रोजगार भी बढ़ेंगे. हम ऐसा क्यों नहीं कर रहे हैं, यह एक बड़ा सवाल है .

सरोकार : कंपनी राज की वापसी का एफ.डी.आई.


- डॉ. कृष्णस्वरूप आनन्दी

हमारा देश बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेट महाबलियों का उपनिवेश बनता गया है। उन्होंने हमारी अर्थव्यवस्था के प्रायः सभी अंगों को अपने शिकंजे में ले लिया है। विनिर्माण, वित्त, व्यापार, औषध, दूरसंचार, सूचना-तन्त्र, बुनियादी ढाँचा (इंफ्रास्ट्रक्चर), प्रतिरक्षा, मीडिया, शिक्षा, हॉस्पिटैलिटी, पर्यटन जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों को अपनी गिरफ़्त में लेने के बाद उन्होंने खेती-किसानी और अब खुदरा कारोबार पर अपनी नजरें गड़ा दी हैं। इन्हें कब्जे में लेकर देश में वे अपने औपनिवेशिक तन्त्र को पुख़्ता और मुकम्मल करना चाहते हैं। ये दोनों ही क्षेत्र हमारे अर्थतन्त्र की बुनियाद में हैं।

कृषि क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेट समूहों की दख़ल बढ़ती गयी है। बीज, खाद, कीटनाशी रसायन, यन्त्रोपकरण जैसे निवेश्य पदार्थों पर अधिकांशतः उनका ही एकाधिकार है। किसान अपनी उपज पर समुचित या लाभकारी मूल्य पाने से वंचित हैं। बढ़ती लागत, घटती सब्सिडी (राज राहत), घाटे की उपज, सिकुड़ता रकबा- इन सबके चलते किसान बदहाली में खेतीबाड़ी कर रहे हैं। बहुराष्ट्रीय एग्रीबिज़नेस कॉरपोरेशन इस बात को लेकर गदगद हैं कि हिन्दुस्तान के ज़्यादातर किसान कृषिकर्म को छोड़ने के लिए तैयार बैठे हैं इसलिए दुनिया-भर के दैत्याकार एग्रीबिज़नेस कॉरपोरेशन चाहते हैं कि मौजूदा कानूनों में ऐसे बदलाव किये जायँ ताकि वे किसानों से सीधे बेरोकटोक उनकी उपज खरीद सकें, उनसे ठेके पर खेती करा सकें और अन्त में उनके खेत हड़प सकें। इस प्रकार ‘किसानों द्वारा खेतीबाड़ी’ के बजाय ‘कॉण्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग’ या ‘कॉरपोरेट फ़ार्मिंग’ का रास्ता साफ़ होगा। जहाँ एक ओर खेती-किसानी पर कब्ज़ा जमाने के लिए एग्रीबिजनेस कॉरपोरेशन अपने पाँव पसार रहे हैं, वहीं दूसरी ओर देश के कोने-कोने में फैले खुदरा कारोबार को अपने हाथों में लेने के लिए वैश्विक कॉरपोरेट परचूनिया कारोबारी यहाँ दस्तक दे रहे हैं। इन दोनों कॉरपोरेट बिरादरियों को चाहिए देशव्यापी विश्वस्तरीय बुनियादी ढाँचागत सुविधाओं का संजाल। इसीलिए देश-भर में एक्सप्रेस वे/नेशनल हाईवे, इण्डस्ट्रियल/इंफ्रास्ट्रक्चर कॉरीडॉर, हाई-टेक् टाउनशिप, शॉपिंग मॉल, कारोबारी कॉम्पलेक्स आदि बनाने वाली बड़ी-बड़ी परियोजनाओं पर तेज़ी से काम चल रहा है। इनके पूरा होने में अगर कहीं कोई रोड़ा आता है, तो उसे फौरन हटाने के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में सीसीआई (कैबिनेट कमेटी ऑन इंवेस्टमेण्ट्) का गठन अभी हाल ही में हुआ है। यह सुपर-कैबिनेट भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन, प्रतिरक्षा, ग्रामीण विकास तथा आदिवासी एवं पंचायती राज मन्त्रालयों की आपत्तियों को दरकिनार करेगी।

खुदरा कारोबार के वाल-मार्टीकरण से न केवल फुटपाथ पर या सड़क के किनारे आबाद अगणित फुटकर व्यवसाय, गली-नुक्कड़ चौराहे के स्टोर, जगह-जगह चल रही छोटी-मझोली परचूनी दुकानें, हाट-बाजार, गुमटियाँ, ठेले, फेरी वाले धन्धे ये सब-के-सब चौपट होंगे; बल्कि खेती-किसानी का भी कॉरपोरेटीकरण होगा। देश के लोगों की जीवन-शैली अपसंस्कृति से अभिशप्त होगी, उनका मानस औपनिवेशीकृत होता जायेगा और वे अपनी जड़ों से कटते जायेंगे। वैश्विक कॉरपोरेट महादैत्य ऐसा भारत बनाने की तैयारी में लगे हुए हैं जो कहीं से भी स्वावलम्बी न रह जाय। स्वाधीनता, आत्मनिर्भरता, संस्कृति, सम्प्रभुता और स्वायत्तता के लिए वे कोई भी गुंजाइश नहीं छोड़ना चाहते।

वैश्विक कॉरपोरेट समूहों ने मिलकर देश पर हमला बोल दिया है। एफडीआई का हथियार चलाकर वे हमारा अस्तित्व मिटाना चाहते हैं। एकएक करके सभी क्षेत्रों पर एकाधिकार क़ायम करने का  उनका सपना है। उनके इस सपने को चकनाचूर करना आज की सबसे बड़ी चुनौती है। देश के नौजवानों, छात्रों, कारोबारियों, किसानों, समाजकर्मियों, बुद्धिजीवियों और आम लोगों को एफडीआई के हमले को नाकाम करने के लिए लामबन्द होकर आगे आना होगा। देश का राजनीतिक नेतृत्व और सत्ता-प्रतिष्ठान कॉरपोरेट उपनिवेशवाद का एजेण्ट बन चुका है। उनसे अब उम्मीद करना बेकार है। कॉरपोरेटीकरण और उसके हथियार एफडीआई के खिलाफ जगह-जगह जन-संघर्ष छिड़े और उससे लोगों के बीच से नये नेतृत्व का आविर्भाव हो ताकि देश में लोकशक्ति-संचालित और कॉरपोरेट-मुक्त नयी व्यवस्था का अधिष्ठान हो। कॉरपोरेट शक्तियों के रहते नयी समाज-रचना असम्भव है। पहला अनिवार्य क़दम है कि उन्हें देश से बाहर किया जाय और फिर उसके बाद तृणमूल से ऊपर तक स्वराज्य की संरचना की जाय।

लोगों के बीच इस बात को लेकर जाने की जरूरत है कि एफडीआई को नाकाम करने के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कारोबार को ठप करना होगा। उनके व्यापारिक/व्यावसायिक प्रतिष्ठानों, उत्पादन-संयन्त्रों और कारोबारी अड्डों को जब तक काम करने से रोका नहीं जायेगा, तब तक देश में एफडीआई का उन्मुक्त प्रवाह और खुला खेल जारी रहेगा। इसके साथ ही, देश में ऐसा माहौल बनाना होगा जिससे कोई भी वैश्विक कॉरपोरेट घराना देश में घुस करके कारोबार करने का दुस्साहस न कर सके। जब भारतीय जनगण से विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ खौफ खायेंगी, तब उनके छुटभैये यानी जूनियर पार्टनर देशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की क्या बिसात! (पीएनएन)


पुस्तक चर्चा : 'प्रिंटलाइन' के भीतर-बाहर





‘‘प्रिंट लाइन के भीतर के लोग प्रिंट लाइन का संयम तोड़कर बाहर आ गये हैं। उसके बाहर ढेर सारे अपनों के बीच यह पहचानना मुश्किल हो गया है कि कौन मीडिया से है और कौन नहीं।’’

जाहिर है कि वह जमाना अब चला गया जब ‘प्रिंट लाइन’ के भीतर के लोग प्रिंटलाइन की मर्यादा को न केवल समझते थे बल्कि इसका सम्मान करते हुए कभी भी ‘लक्ष्मण-रेखा’ को लांघने की कोशिश नहीं करते थे। अब तो लोग ‘प्रिंट लाइन’ के भीतर दाखिल ही इसलिये होते हैं कि उन्हें ‘प्रिंट लाइन’ के बाहर आने का कोई बढ़िया-सा अवसर हासिल हो सके। पिछले लगभग चार दशकों में हिंदी पत्रकारिता के उतार (चढ़ाव तो शायद ही हो! ) की पूरी कथा परितोष चक्रवर्ती के नवीनतम उपन्यास प्रिंट लाइन’ में पढ़ी जा सकती है, जिसे हाल ही में ‘ज्ञानपीठ’ ने प्रकाशित किया है। किताब का लोकार्पण पिछले दिनों रायपुर में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने किया व इस समारोह में देशभर के लेखक, पत्रकार, आलोचक-चिंतकों ने भागीदारी की। छत्तीसगढ़ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के इस कार्यक्रम की अध्यक्षता कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने की।

‘धर्मयुग’ में नहीं जाने से लेकर ‘रविवार’ को छोड़ने तक परितोष के पास पत्रकारिता का एक लंबा अनुभव है पर उनके पाँवों में ‘भँवरी’ (चकरी) लगी हुई है इसलिये वे किसी एक जगह टिककर नहीं रह पाते। नौकरियाँ छोड़ने का रोग उन्हें खाज की तरह रहा है जो उन्हें कोई 15-16 जगह घुमाता रहा और इसी सिलसिले में अनेकानेक लोग उनके संपर्क में आए जो इस उपन्यास के पात्र हैं - कई वास्तविक नामों से और कुछ काल्पनिक। लगभग हकीकत और थोड़े फसाने को लेकर रचा गया यह उपन्यास एक ओर तो विगत् चार दशकों की हिंदी पत्रकारिता का लेखा-जोखा है तो दूसरी ओर नायक ‘अमर’ की जीवनी भी जो इस समस्त घटनाक्रम में सक्रिय रूप से सम्मिलित है।

उपन्यास का एक किरदार ‘कप्पू’ भी है, जिसके साथ काम करने का अवसर इन पंक्तियों के लेखक को भी हासिल हुआ, इसलिये उपन्यास व लोकार्पण कार्यक्रम के विस्तार में जाने से पहले -निश्चय ही क्षमायाचना के साथ- कुछ निजी अनुभव। उन दिनों अखबार में साहित्यिक पत्रकारिता का अवसान पूरी तरह नहीं हुआ था और अखबार में नया होने के कारण मैं हरेक पत्रकार को ‘साहित्यकार’ समझते हुए उन्हें बड़ी श्रद्धा व आदर के साथ देखा करता था। परितोष, दीवाकर मुक्तिबोध (गजानन माधव मुक्तिबोध जी के सुपुत्र व रायपुर के वरिष्ठ पत्रकार ) व कप्पू उर्फ निर्भीक वर्मा उसी अखबार में काम करते थे। मैंने पहले भी कहीं जिक्र किया है कि अखबार का माहौल दमघोंटू था और हर वक्त कर्फ्यू जैसा लगा रहता था, जहाँ किसी को भी हँसते-बोलते देख लिये जाने पर फौरन गोली मार दिये जाने का अंदेशा बना रहता था। दीवाकर स्वाभाव से ही गंभीर थे और मैंने उन्हें प्रायः चुपचाप अपना काम करते हुए ही देखा था। ‘कर्फ्यू’ तोड़ने का काम या तो परितोष करते या कप्पू और इसलिये ही हम नये ‘रंगरूटों’ के हीरो थे। एक बार प्रधान संपादक जी ने कप्पू को समय पर अखबार के दफ्तर में आने की सलाह दी तो ‘‘टाइम पर आना और टाइम पर जाना’’ के मौन नारे के साथ कप्पू घर से एक बड़ी -सी अलार्म घड़ी लेकर आने लगे जो टेबल में उनके ठीक सामने रखी रहती, ताकि समय पर जाने में चूक न हो। लेकिन असल किस्सा कुछ और है।

मैंने अर्ज किया कि तब साहित्यिक व ‘मिशन वाली पत्रकारिता’ का अंत तो नहीं हुआ था लेकिन नयी तकनीक के आगमन के साथ बाजारवाद की पदचाप सुनाई पड़ने लगी थी, जो इतनी महीन थी कि कम से कम हम जैसे नये रंगरूटों की पकड़ से बाहर थी। कोई नया आदमी मिलता और कप्पू से परिचय कराया जाता तो काम के बारे में कप्पू का कहना होता, ‘‘जी मैं रद्दी बेचने का काम करता हूँ।’’ परितोष इस पर मुस्कुराते रहते और मैं आहत होता कि पत्रकारिता जैसे ‘महान’ व ‘पवित्र’ कार्य को कप्पू इस तरह लांछित कर रहे हैं और उन्हें परितोष का मूक समर्थन हासिल है। बहुत बाद में जब दिल्ली में एक ट्रेड यूनियन के दफ्तर में काफी दिनों तक अपना डेरा रहा तो उन दिनों अंग्रेजी के दो बड़े अखबारों में कीमत घटाकर ज्यादा पन्ने देने की प्रतिस्पर्धा चल रही थी। एक दिन बातों ही बातों में अखबार के हॉकर ने बताया कि ‘‘लंबे समय की मजबूरी है, वरना अखबार को बाँटने के बदले यदि उसे रद्दी में बेच दिया तब भी उतने ही पैसे मिल जायेंगे।’’ मुझे उसी क्षण कप्पू व परितोष की याद आयी और दरअसल ‘प्रिंट लाइन’ की समस्त कथा उस पूरे दौर कथा है जिसमें सरोकारी पत्रकारिता रद्दी बेचने के कारोबार में बदल गयी।

छत्तीसगढ़ के छोटे-से गाँव से उपन्याय का नायक अखबारी लेखन की शुरूआत करता है और रायपुर के एक अखबार से सक्रिय पत्रकारिता में प्रवेश करते हुए अंततः देश की राजधानी दिल्ली में पहुँचता है जहाँ उसकी नियति बाजारू हथकंडों द्वारा छले जाने के लिये अभिशप्त है। लेकिन मजे की बात यह है कि ‘मिशन’ के खाज का मारा नायक अब भी ‘‘सब कुछ लुटाकर होश में आये तो क्या किया’’ कहने के बजाय ‘‘जो घर फूँके आपना’’ के मंत्र का जाप करता दिखाई पड़ता है। इसलिये लक-दक गाड़ियों में घूमने व लाखों की सैलरी लेने वाले आज के पत्रकारों के लिये यह पत्रकार किसी अजूबे से कम नहीं है जो संपादक-प्रबंधक द्वारा छूट दिये जाने पर भी अपने लिये न्यूनतम वेतन तय करता है और एक डूबती हुई पत्रिका को बचाने और चलाने के लिये अपना वेतन व खर्च कम कर लेता है।

लेकिन इस आत्मकथात्मक उपन्यास में केवल पत्रकारिता की कथा नहीं है। बहुस-सी और भी कथायें हैं जो साथ-साथ चलती रहती हैं। छत्तीसगढ़ के गाँवों कस्बों में वर्ण-व्यवस्था, गाँवों से मजदूरों का पलायन, आपातकाल के काले दिन, पृथक छत्तीसगढ़ का आंदोलन -आदि अनेक प्रसंग कथा में बार-बार में आते हैं ओर इस कथा को अत्यंत रोचकता के साथ इतिहास की तरह भी पढ़ा जा सकता है। छत्तीसगढ़ की कथा यहाँ की प्रमुख पैदावार धान के उल्लेख के बगैर पूरी नहीं हो सकती सो कुछ पन्नों पर आप धान की विभिन्न किस्मों से भी रू-ब-रू हो सकते है। सबसे बड़ी बात यह है कि किताब को पढ़ने के लिये प्रयास की जरूरत नहीं है, किताब स्वयं को पढ़ाती चलती है। यह रोचकता मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को भी नजर में आयी और उन्होंने कहा कि इस किताब को पढ़े बगैर मुझे चैन नहीं आयेगा, अभी थोड़ी पढ़ी तो बेचैन हूँ। इसे पढ़ते हुए बहुत आनंद आ रहा है। आलोचकों पर चुटकी लेते हुए उन्होंने कहा कि आप विद्वानों को तो और भी अधिक आनंद आयेगा।

दिल्ली के वरिष्ठ समीक्षक व मुख्य वक्ता डॉ. अजय तिवारी ने इसे दांपत्य-प्रेम का अद्भुत उपन्यास बताया जो प्रेमचंद के यहाँ दिखाई पड़ता है। उन्होंने कहा कि सिर्फ इसी वजह से उपन्यास की कुछ कमियों को -जो उपन्यासकार की हड़बड़ी की वजह से उत्पन हुई हैं -खारिज किया जा सकता है। दिल्ली के ही कवि व समीक्षक डॉ. जितेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा कि यह किसी निष्कर्ष में पहुँचने की जल्दबाजी वाला उपन्यास नहीं है बल्कि यहाँ पर अर्थ की अनेक सभावनायें हैं। यह प्रश्न पूछने वाली, प्रश्न पूछने का शऊर पैदा करने वाली, बेचैनी उत्पन्न करने वाली व सच को सच की तरह कहने का साहस प्रदान करने वाली रचना है। अपने अध्यक्षीय भाषण में डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने कहा कि उन्हें इस बात का फख्र हासिल है कि उन्हें इस रचना को ड्राफ्ट दर ड्राफ्ट लेखन -प्रक्रिया के दौरान ही पढ़ने का गौरव हासिल है, ठीक वैसे ही जैसे कोई व्यक्ति अपनी नयी गाड़ी के इंजन को रवां करने के लिये उसे अपने मित्र को सौंप देता है।

चर्चा का सूत्र थमाने के लिये परितोष ने भी संक्षिप्त वक्तव्य दिया। कहते हुए वे थोड़े भावुक हो गये, हालांकि उनका सेंस ऑफ ह्यूमर विपरीत परिस्थितियों में कुछ ज्यादा ही जागृत हो जाता है। जब वे दिल्ली से अपनी पत्रिका निकाल रहे थे और घाटे में चल रहे थे तो अचानक मैंने देखा कि पत्रिका के अंग्रेजी संस्करण के शुभारंभ की घोषणा की गयी है। मैंने तुरंत फोन घनघनाया और इस उलट-बाँसी का आशय पूछा। परितोष ने कहा कि ‘‘तुम नहीं समझोगे। गरीब आदमी ही ज्यादा बच्चे पैदा करता हैं।’’ लेकिन यहाँ पर वे रूआँसे-से हो गये। पता नहीं ऐसा क्यों होता है कि तस्वीर खिंचवाते हुए प्रेमचंद के जूते फटे हुए दिखाई पड़ते हैं और बोलते हुए परितोष का गला रूंध जाता है! हिंदी-समाज अपने लेखकों के साथ ऐसा बर्ताव क्यों करता है?











- दिनेश चौधरी


रंगमंच : मुक्तिबोध के बहाने


-संजय पराते की रिपोर्ट

यह रायपुर इप्टा द्वारा आयोजित 'मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाटय समारोह' (11-15 जनवरी, 2013) का 16वां आयोजन था। 16वां वर्ष किशोरावस्था से वयस्कता की ओर संक्रमण की अवस्था होती हैं। अपनी तमाम छोटी-मोटी कमजोरियों के बावजूद इस आयोजन ने एक बार फिर आश्वस्त किया कि रायपुर की रंग सक्रियता सिर्फ रंगमंच तक सीमित नहीं है, बलिक रंगकर्म के सरोकारों तक विस्तृत है। यह आयोजन केवल नाटय प्रदर्शन के लिए ही नहीं, बलिक विचार-विमर्श और रंग-संगीत के लिए भी याद किया जाएगा। रंग-उपादानों के घोर अभाव के बावजूद रायपुर की रंग-ऊर्जा किसी भी महानगर के रंगमंच को टक्कर देने का मादृदा रखती है।

मुक्तिबोध को हर साल याद करना महत्वपूर्ण है, लेकिन इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि यह स्मरण रस्म-अदायगी भर नही है। नाम के अनुरूप ही पूरा आयोजन 'मुक्तिबोधी' था- उस उददेश्य के प्रति समर्पित, जिसके लिए मुक्तिबोध ता-उम्र संघर्ष करते रहे। सड़ी-गली और पिछड़ी चेतना से मुक्ति के लिए संघर्ष का यह बोध ही इस आयोजन को विशिष्ट बनाता है और इप्टा के रंगकर्म को दूसरे सभी आयोजनों से अलग करता है। आखिर मानव मुक्ति का अभियान- जो उसके वर्गीय शोषण के संघर्ष से सीधा जुड़ा है- कभी एकांगी तो रहेगा नहीं। वह न केवल बहुआयामी है, बलिक बहुरंगी भी है। एकांगिता और एकरंगिता तो मनुष्य को केवल संकीर्ण ही बना सकते हैं और संकीर्णता कभी किसी को मुक्ति नहीं देती। वामपंथी राजनीति की संकीर्णता के साथ भी यही बात लागू होती है, जिसे वामपंथी संस्कृति-कर्म ही तोड़ता है। इसी मायने में इप्टा का यह संस्कृति-कर्म महत्वपूर्ण है कि वामपंथ की जड़ता और खामोशी को ये तोड़ने का काम करता है- यह मनुष्य को मनुष्य बनाने का रचनात्मक अभियान है। इसीलिए ये आयोजन 'मुक्तिबोधी' था।

लेकिन समारोह की पहली संध्या पर ही खलल पड़ा- वैसे ही, जैसे यह सामान्य धारणा है कि शुभ काम में खलल तो पड़ता ही है। उसके बिना काम की 'शुभता का महत्व स्थापित नहीं हो पाता। आना तो था बनारस की किसी टीम को 'कामायनी का प्रदर्शन करने, लेकिन मोबाइल युग में संचार ठप्प हो गया और खैरागढ़ संगीत विश्वविधालय के नाटय विभाग की टीम ने वाहवाही लूटी। उन्होंने डा. योगेन्द्र चौबे के निर्देशन में हरिशंकर परसाई के व्यंग्य 'वैष्णव की फिसलन' का मंचन किया। हरिशंकर परसाई धर्म के गोरखधंधे से अच्छी तरह वाकिफ थे। इस गोरखधंधे पर उन्होंने पूरी जिंदगी चोट की और बदले में मार खाई। मार से उनके व्यंग्य की धार और तीखी हुई। 'वैष्णव की फिसलन' इसका प्रमाण है। यह पूरी व्यवस्था के फिसलने और ढहने की कहानी है- सामाजिक नैतिकता, अर्थव्यवस्था और राजनीति के- सबके फिसलने-ढहने की कहानी। जब धर्म में धंधा घुस जाता है और यह धधा राजनीति से हाथ मिला लेता है, तो ईश्वर भी पूरी व्यवस्था का बंधक बन जाता है। उसका विकृत मानव विरोधी, सभ्यता विरोधी, धर्म विरोधी चेहरा उजागर होने लगता है। इसीलिए धर्म को राजनीति से अलग रखने की जरूरत है और धंधे से भी। धर्मनिरपेक्षता की राजनीति की जरूरत भी इसीलिए बनी हुई है- वरना शोषणकारी व्यवस्था उत्पीडि़त जनता से उसकी अज्ञानता का फायदा उठाकर पूजा-पाठ करवाती रहेगी, गणेश की मूर्तियों को दूध पिलवाती रहेगी, मसिज़दें ढहाती रहेगी और दंगे करवाकर वोट बटोरती रहेगी। डा. योगेन्द्र चौबे इसी मायने में सफल निर्देशक हैं कि परसाई की सोच के अनुसार धर्म के धंधे को राजनीति के धंधे से जोड़ने में सफल रहे। शमशेर आलम वैष्णव और धीरज सोनी विष्णु के रुप में खूब जमें। संगीत व मंच सज्जा भी आवश्यकतानुसार अच्छी थी।

नाटय समारोह की दूसरी संध्या रस-रंग को समर्पित रही। बोधायन के प्रहसन पर आधारित नाटक 'भिक्षुक और गणिका का प्रदर्शन किया फोक आर्ट, चंडीगढ़ के ओजस्वी कलाकारों ने और निर्देशिका थीं डा. रानी बलबीर कौर। डा. कौर को इप्टा द्वारा स्वर्गीय कुमुद देवरस सम्मान से सम्मानित किया गया। यह सम्मान रंगमंच से जुड़ी महिला को दिया जाता है। डा. कौर पूर्व में भी कई सम्मानों से नवाजी जा चुकी हैं। उनकी ये प्रस्तुति बेहद आकर्षक थी और रंगमंच के सभी रंगों की झलक दिखला रही थी। पात्रों का रंगाभिनय, उनकी शारीरिक गतियां, रंग-संगीत और प्रकाश सभी यह अहसास करा रहे थे कि रंगदर्शक एक लोकरंग का रसास्वादन कर रहे हैं। लेकिन इस नाटक की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि नाटक का पूरा उत्तरार्ध गैर-यथार्थवाद की भावभूमि पर खड़ा है और इसीलिए दूसरे निर्देशकों की तरह वे भी इसे आधुनिक संदर्भों से जोड़ने में असफल रहीं।

संस्कृत साहित्य की एक धारा दर्शन के क्षेत्र में भाववाद और भौतिकवाद के संघर्ष पर टिकी है। बोधायन का प्रहसन भी इसी संघर्ष को अभिव्यक्त करता है और अंत में भाववाद को समर्पित होता है। संन्यासी के 'मोक्ष और उसके शिष्य शांडिल्य का 'माया-मोह इसी संघर्ष की अभिव्यकित है। यह नाटक सातवीं सदी का है और हम इक्कीसवीं सदी मे जी रहे हैं। इन 14-15 सदियों में दर्शन और विचारधारा के क्षेत्र में मानव समाज ने एक लंबी छलांग लगायी है। अब आत्मा और अध्यात्म शुद्धता और पवित्रता के दायरे से निकलकर व्यवसाय बन गया है और आधुनिक मानव समाज की समस्याओं का हल अध्यात्म और आत्मा की पवित्रता के दायरे में खोजना बेतुका है। इसीलिए बोधायन के प्रहसन को आधुनिक आत्मा देने की जरूरत है, वरना रंग-तत्वों से सुसजिजत रंगमंच दर्शकों का केवल मनोरंजन कर सकता है।

नाटय समारोह की तीसरी संध्या में फिर परसाई छाये रहे। पुणे के निर्देशक प्रसाद वानारसे ने 'लड़ी नजरिया प्रस्तुत की, जिसमें पात्रों का अभिनय जितना मंझा हुआ था, संगीत पक्ष भी उतना ही जोरदार और रंग-प्रकाश दोनों के अनुकूल। नाटक में व्यंग्य तो था ही, सामाजिक-राजनैतिक मुददे भी थे, इन मुददों के विविध पक्ष भी थे, संवेदना थी, आक्रोश था और सबसे बढ़कर सौदेश्यता भी। प्रसाद के लिए रंगमंच के सरोकार बहुत ही स्पष्ट हैं और 'लड़ी नजरिया' एक लोकरंजक नाटक साबित हुआ। शुरू से अंत तक रंगदर्शक इस नाटक से बंधे रहे और यह सम्मोहन नाटक खत्म होने के बाद भी भंग नहीं हुआ।

सनकी बाबा (हिमांशु तलरेजा), नाम्या (राकेश कुमार), सावित्री (रविजा चौहान) और कथावाचक (रोहन सचदेव)- इन सबने परसाई की कल्पना को रंगमंच पर उतारा। वर्तमान व्यवस्था के सभी प्रतीक नाटक में विद्ममान हैं। गांधीवाद से लेकर बाबावाद तक। अन्ना टोपी से लेकर केजरी टोपी तक। रामदेव के योगासन से लेकर साधिवयों के भोगासन व छल-कपट तक। आंदोलन, आमरण अनशन और आत्मदाह की धमकियां तक। ये सब मिलकर एक विराट परिदृश्य की रचना करते हैं।

लेखक और निर्देशक जब एक दृष्टि और एक सौद्देश्यता के साथ मंचित होते हैं, तो रंगमंच पर किस तरह का निखार आता है, 'लड़ी नजरिया' इसका प्रमाण है। तब रंगदर्शक भी निरपेक्ष व तटस्थ नहीं रहते। दर्शक दीर्घा भी रंगमंच का हिस्सा बन जाती है और तब दर्शकों की संवेदनायें भी जागृत हो जाती हैं और पात्रों के सुख-दुख का वे भी हिस्सा बन जाते हैं। रंगमंच तभी सफल कहलाता है और 'लड़ी नजरिया' की सफलता भी इसी से जुड़ी है।

अगली संध्या पर दो प्रस्तुतियां हुईं। पहली प्रस्तुति रायपुर इप्टा की थी- के पी सक्सेना लिखित और रवीन्द्र गोयल निर्देशित 'गज फुट इंच'- एक साफ-सुथरा और हल्का-फुल्का व्यंग्य। जीवन में ऐसे हास्य की भी बहुत जरूरत है, जो रंग दर्शकों के कमजोर होते फेफड़ों में हवा भरने का काम करे। इस काम को अंशुदास (जुगनी), राजा पांडे (टिल्लू), प्रिया शर्मा (गुल्लू), मुस्कान (टिल्लू की मां) और रवीन्द्र गोयल (पोखरमल) ने बखूबी निभाया।

दसरी प्रस्तुति थी- भिलाई इप्टा की 'रामलीला'- अशफाक खान के निर्देशन में एक उददेश्यपूर्ण नाटक। अपने आर्थिक हितों को साधने के लिए इस देश की सांप्रदायिक ताकतों द्वारा किये जा रहे नंगे नाच का खुलासा। इस नाटक को बाबरी मसिज़द के विध्वंस के पहले लिखा गया था। संघी गिरोह तब इस विवाद को गरमा ही रहा था और राम के बहाने अयोध्या और पूरे देश की शांति भंग की जा रही थी। इस देश की हिंदू सांप्रदायिक ताकतें एक ऐसी 'लीला खेलने की तैयारी कर रही थी, जिसमें रावण का नहीं, इस देश की सौहाद्र्रपूर्ण सांस्कृतिक परंपराओं का दहन होना था। 'रामलीला' के मैदान को 'महाभारत' के युद्ध क्षेत्र में बदलने का षड़यंत्र रचा जा रहा था- जिसके बाद केवल तबाही मचनी थी, बसितयां उजड़नी थीं, मरघट का सन्नाटा और घृणा नफरत की दीवारें खड़ी होनी थीं। ये ताकतें सफल भी हुर्इं- 'रामलीला भंग हुई, एक लंबे रक्तरंजित 'महाभारत के बाद राम को पलायन करना पड़ा और रावण मुस्कुराता रहा। दस साल बाद यही 'महाभारत फिर गुजरात में रचा गया और मोदी सत्तासीन हुये। मोदी के भाजपाई राज में मानव विकास सूचकांक भले ढह गये हो, इन ताकतों का आर्थिक साम्राज्य आज भी जगमगा रहा है। कलिकाप्रसाद और अली बहादुर इसी साम्राज्य के प्रतिनिधि हैं, जो असल खेल तो जमीन हड़पने का खेल रहे हैं, लेकिन निशाने पर वह 'रामलीला है, जो मुसिलमों की भागीदारी के बिना पूरी नहीं होती, जो हिंदू-मुसिलमों के सहयोग से एक समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा के रुप में विकसित हुर्इ है। शोषण की व्यवस्था को बनाये रखने वाली ताकतों को यही संशिलष्टता रास नहीं आती। उन्हें पाषाण युग के हथियार अच्छे लगते हैं।

इस नाटय समारोह का अंत हुआ मोहन राकेश के 'आधे-अधूरे' के मंचन से। जबलपुर की 'विवेचना' गंभीर रंगकर्म के लिए जानी जाती है। न केवल नाटकों के चयन के हिसाब से,बलिक प्रस्तुति के लिहाज से भी। नाटककार की कल्पना को रंगमंच पर उतारना किसी भी निर्देशक के लिए आसान नहीं होता और मोहन राकेश तो निर्देशकों के लिए हमेशा चुनौती ही रहे हैं। चुनौती की इस कसौटी पर अपने निर्देशन व अभिनय दोनों में विवेक पांडे व प्रगति पांडे खरे उतरे। मोहन राकेश अपने नाटकों को एक नयी रंगभाषा में प्रस्तुत करते हैं। यह रंगभाषा जीवन की त्रासदी और नाटकीय विडंबनाओं को गति देती है और इससे रंग विस्तार की व्यापक संभावनायें पैदा होती हैं। इन संभावनाओं का पूरा उपयोग 'विवेचना ने अपनी रंग प्रस्तुति में किया है। विवेक पांडे ने महेन्द्रनाथ व जुनेजा सहित सभी पुरुष पात्रों को मंच पर एक साथ जिया है और कहीं एकरसता नहीं दिखी।

मोहन राकेश का 'आधे-अधूरे सातवें दशक का नाटक है। आधुनिक भारत के इतिहास में सातवां दशक बहुत उथल-पुथल भरा था- न केवल राजनैतिक रुप से, बलिक अर्थव्यवस्था के लिहाज से भी। फिर परिवार और समाज ही इससे कैसे अछूता रहता? मोहन राकेश ने अपने सांस्कृतिक सरोकारों को समाज और परिवार से जोड़ा। नाटय आंदोलन के क्षेत्र में यह एक नई सृजनात्मक रंग-चेतना थी। सत्तर के दशक की तुलना में आज यह सामाजिक तनाव और ज्यादा गहरा हो गया है और इसीलिए आज भी यह नाटक बहुत प्रासंगिक है। 'आधे-अधूरे की नायिका सावित्री (प्रगति पांडे) अपने अधूरेपन को मानने को तैयार नहीं है। वह महेन्द्रनाथ में पूर्णता की खोज करती है और जीवन में निराशा और ऊब उसके पल्ले पड़ती है। यह मध्यवर्गीय जीवन की त्रासदी है कि पूर्णता की खोज से ऐसे नये तनावों का जन्म होता है, जिससे बचा जा सकता है और संकटग्रस्त जीवन में भी थोड़ा सुख खोजा जा सकता है। लेकिन पूर्णता की मांग पूरे जीवन को नष्ट कर देती है। लेकिन यह सवाल फिर भी अपनी जगह है कि जिस चरम पर जाकर मोहन राकेश ने नाटक का अंत (महेन्द्रनाथ का लौटकर आना) किया है, वह भारतीय समाज क निराशावाद है या नियतिवाद? या फिर इस पूरी त्रासदी का हल कहीं और है? दुर्भाग्य की बात है कि भारतीय समाज के तनावों को मंचित करने वाले नाटक अब नहीं के बराबर आ रहे हैं। यह सामाजिक रंगकर्म कार्पोरेटी सीरियलों में कहीं गुम सा हो गया है।

समारोह में इन पूर्ण नाटय प्रस्तुतियों के अलावा नेशनल एसोसिएशन फार ब्लाइंडस 'प्रेरणा की नेत्रहीन छात्राओं ने लोकगीत तो प्रस्तुत किये ही, भीष्म साहनी कृत और निसार अली निर्देशित 'चीफ की दावत का भी मंचन किया। इप्टा रायपुर ने नुक्कड़ नाटक 'सरकार का निजीकरण का मंचन किया। दीपक और पूनम की टीम ने दिवंगत हबीब तनवीर के नाटक के गीतों को प्रस्तुत किया। गोविंदराम निर्मलकर ने नाटय समारोह का उद्घाटन किया। उन्होंने छत्तीसगढ़ के 'नाचा जैसी लोकप्रिय विधा के प्रति सरकारी उदासीनता पर नाराजगी और चिंता जाहिर की। 'रंगकर्म के सरोकार' विषय पर हई गोष्ठी में प्रसार वानारसे व डा. रानी बलबीर कौर ने विचारोत्तेजक वक्तव्य रखा।

कुल मिलाकर इस समारोह ने रायपुर के रंगकर्म की जीवंतता को पुन: रेखांकित किया। छत्तीसगढ़ के संस्कृति विभाग ने जिस नाट्य कर्म को दोयम दर्जे पर रख दिया है, ऐसे में इप्टा का यह समारोह संस्कृति विभाग को उसका असली चेहरा तो दिखाता ही है।